Saturday, November 14, 2020

शुभ दीपावली | श्री महालक्ष्म्यष्टकं | डॉ. वर्षा सिंह

🚩 दीपोत्सव दीपावली मंगलमय हो 🚩

महालक्ष्मी की कृपा सेे वैभव, सौभाग्य, आरोग्य, ऐश्वर्य, शील, विद्या, विनय, ओज, गाम्भीर्य और कान्ति मिलती है। आईए हम उनकी स्तुति करें।

🚩श्री महालक्ष्म्यष्टकं 🚩

ॐ नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुर पूजिते। 
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते || 1 || 

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुर भयंकरी | 
सर्व पाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते || 2 || 

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्व दुष्ट भयंकरी।  
सर्व दुःख हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते || 3 || 

सिद्धि बुद्धि प्रदे देवी, भुक्ति मुक्ति प्रदायिनी। 
मंत्र मूर्ति सदा देवी, महालक्ष्मी नमोस्तुते || 4 ||    

आद्यन्त रहिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी। 
योगजे योग सम्भूते महालक्ष्मी नमोस्तुते || 5 ||  

स्थूल सूक्ष्म महारौद्रे, महाशक्ति महोदरे। 
सर्व पाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते || 6 || 

पद्मासन स्थिते देवी, परब्रह्म स्वरुपिणी। 
परमेशी जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोस्तुते || 7 || 

श्वेताम्बर धरे देवी, नानालङ्कार भुषिते। 
जगतस्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोस्तुते || 8 || 

महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्ति मान्नरः। 
सर्व सिद्धि मवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा || 9 || 

एककाले पठेनित्यं महापाप विनाशानम। 
द्विकालं यः पठेनित्यं धनधान्य समन्वितः || 10 || 

त्रिकालं यः पठेनित्यं महाशत्रु विनाशनम।
महालक्ष्मीर्भवे नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा || 11 ||  

फलश्रुति -

महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिमान्नरः |
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा || 1||

एककाले पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं |
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्यं समन्वितः || 2 ||

त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं |
महालक्ष्मीर्भ्हवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा || 3 ||

[ इन्द्र कृत महालक्ष्मी कृपा प्रार्थना स्तोत्र ]
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Friday, November 13, 2020

बुंदेलखंड का दिवारी नृत्य | दीपावली पर्व विशेष | डॉ. वर्षा सिंह

       बुन्देलखण्ड में लोकनृत्यों की लम्बी परम्परा है। राई, सैरा, मोनिया, नौरता, बरेदी, दिवारी यहां के प्रमुख लोकनृत्य हैं।  दिवारी, दीवारी या देवारी नृत्य दीपावली के अवसर पर  किया जाता है। यह नृत्य बुन्देलों के शौर्य एवं वीरता का प्रतीक है। 
         मान्यताओं के अनुसार यह नृत्य द्वापर युग में भगवान् कृष्ण के समय से इस क्षेत्र में प्रचलित है। माना जाता है कि भगवान कृष्ण ने जब कंस का वध किया था तब उसका समाचार सुन कर बुंदेलखंड में दिवारी नृत्य किया गया था जो आज भी परम्परागत तरीक़े से ज़ारी है। यह भी कहा जाता है कि कृष्ण ने जब गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा कर ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाया था तब ब्रजवासियों ने खुश हो कर यह दिवारी नृत्य कर श्री कृष्ण की इन्द्र पर विजय का जश्न मनाया था तथा ब्रज के ग्वालावाले ने इसे दुश्मन को परास्त करने की सबसे अच्छी कला माना था। इसी कारण इन्द्र को श्री कृष्ण की लीला को देख कर परास्त होना पड़ा। 
        बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेश वाले क्षेत्र बांदा, चित्रकूट, जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर और महोबा जनपद में वीर आल्हा, उदल की वीरता की झलक दिवारी नृत्य में दिखाई देती है।  बुंदेलखंड के इलाकों में ये दीवारी नृत्य टोलियों में होता है। अपने-अपने गांवों की टोलिया बनाकर सभी वर्गों के लोग आत्मरक्षा वाली इस कला का प्रदर्शन करते हैं। नर्तक इस नृत्य के दौरान आपस में लाठियां एक दूसरे को मारते और बचाव करते हैं। बुन्देलखण्ड के मध्यप्रदेश वाले हिस्से में बुंदेला राजा छत्रसाल की वीरता से इसे जोड़ा जाता है।
सागर, दमोह, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़ और दतिया ज़िलों में यह परंपरागत लोक नृत्य जिमनास्टिक की तरह प्रस्तुत किया जाता है।  ढोलक की थाप पर रंगबिरंगी वेषभूषा में हाथों में मज़बूत लाठी ले कर दिवारी लोक नृत्य खेलने वाले अलग ही दिखाई देते हैं। उनकी पोशाकें -जांघिए और कुर्तियां, चटक पीले,हरे,नीले या लाल रंग के कपड़ों और रेशमी गोटों से बनी होती हैं। उनमें कौड़ियां और बड़े घुंघरू टंके होते हैं। साथ ही किनारों पर रंग-बिरंगे फुंदने लटकते रहते हैं। मौनिया नर्तक पांवों में छोटे घुंघरू बांधते हैं और हाथों में मोरपंखों का गुच्छा या बांस की लाठियां लिए रहते हैं। यह माना जाता है कि चंदेलों के शासन काल में पारम्परिक रूप से युद्ध कौशल को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस लोक नृत्य की शुरुआत हुई।        
  
         बुंदेलखंड के ग्रामवासी, बल्कि ख़ास तौर पर यादववंशी यानी अहीर जाति के ग्वाले पुरुष इस नृत्य में भाग लेते हैं। यह पुरुषों का समूह लोकनृत्य है और नाचने वाले ‘दिवरिया’ या ‘मौनिया’ कहलाते हैं। वस्तुतः इस नृत्य के साथ दिवारी लोक गीत गाया जाता है और इसीलिए इस नृत्य को 'दिवारी नृत्य' कहते हैं। 
एक दिवारी गीत की बानगी देखिए -

बाबा नंद के छौना, तुमने भली डराई रीत, कातिक के महीना मां घर-घर दीन सूचना,

व देश दीवारी दो दिना, मथुरा बारह मास, नित राही गोवर्धन धरे, कान्हा खिलावें गाय,

इस नृत्य में ढोल-नगाड़े की टंकार के साथ पैरों में घुंघरू और कमर में पट्टा बांध कर हाथों में लाठियां ले कर जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं। किन्तु कोई आहत नहीं होता। बुन्देलखंड का यह विशिष्ट लोक नृत्य 'मार्शल आर्ट' जैसा ही कहा जा सकता है। हाथों में मोरपंख लेकर थिरकन और विशेष लय में पद संचालन के साथ गोल घेरे में घूम कर नचइयों का समूह-नृत्य और नृत्य के बीच या अंत में लाठियों की टकराहट के साथ अनूठे खेल और करतब यानी हैरतअंगेज वीरता को प्रदर्शित करता मार्शल आर्ट। दिवारी गाने वाले सैकड़ों ग्वाले लोग गांव नगर के संभ्रांत लोगों के दरवाजे पर पहुंचकर कड़ु़वा तेल पियाई चमचमाती मजबूत लाठियों से दिवारी खेलते हैं। उस समय युद्ध का सा दृश्य न आता है। एक आदमी पर एक साथ १८-२० लोग एक साथ लाठी से प्रहार करते हैं, और वह अकेला पटेबाज खिलाड़ी इन सभी के वारों को अपनी एक लाठी से रोक लेता है। इसके बाद फिर लोगों को उसके प्रहारों को झेलना होता है। चट-चटाचट चटकती लाठियों के बीच दिवारी गायक जोर-जोर से दीवारी --गीत-- गाते हैं और ढ़ोल बजाकर वीर रस से युक्त ओजपूर्ण नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। पाई डण्डा नृत्य ८-१० व्यक्तियों के समूह में विभिन्न प्रकार के करतब्य मजीरा-नगड़ियां के साथ दिखाते हैं।
दीपावली के कुछ दिन पूर्व से ही गांव-गांव में लोग टोलियां बना दीवारी नृत्य का अभ्यास करने लगते हैं। बुंदेलखंड में धनतेरस से लेकर दीपावली की दूज तक गाँव-गाँव में दिवारी नृत्य खेलते नौजवानों की टोलियाँ घूमती रहती हैं। दिवारी देखने के लिए हजारों की भीड़ जुटती है। 
     लगभग धनतेरस से शुरू हो कर यह नृत्य भाईदूज पर्व तक चलता रहता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्तिक माह में हर तरफ इस नृत्य की हलचल व्याप्त रहती है।
      इस दिवारी नृत्य को बड़े, बूढ़े और बच्चे सभी पसंद करते हैं और इसमें बढ़ चढ कर भाग लेते हैं। इस नृत्य की विशेष बात यह है कि इस दिवारी नृत्य में सिर्फ हिन्दू धर्मावलंबी ही नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय के लोग भी उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं।


    एक और दिवारी गीत देखें - 

टेरत-टेरत दूर निकल गईं,
लेत तुम्हारो नाम।
       तुम्हें तो टेरत हैं घनश्याम ...

गोरी-गोरी उमर की छोटी,
राधा उनका नाम।   तुम्हें तो...
टेरत हैं घनश्याम

कहां का रहना, कहां का मिलना,
कहां भई पहचान।   तुम्हें तो...
टेरत हैं घनश्याम

गोकुल रहना, मथुरा मिलना,
बरसाने पहचान।   तुम्हें तो...
टेरत हैं घनश्याम...

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#बुंदेलखंड #दिवारी #दीपावली #लोकनृत्य #दीवारी #देवारी #कृष्ण #द्वापर

Monday, November 2, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 13 | समग्र दृष्टिकोण | पुस्तक | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत तेरहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के प्रतिष्ठित विचारक, चिन्तक, लेखक एवं उद्योगपति स्व. मोतीलाल जैन की पुस्तक "समग्र दृष्टिकोण" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
सागर : साहित्य एवं चिंतन

     पुनर्पाठ : मोतीलाल जैन कृत ‘समग्र दृष्टिकोण’ 
                           -डॉ. वर्षा सिंह
                                  
           इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को जो जीवन के विभिन्न पक्षों को गहन दृष्टिकोण के साथ व्याख्यायित करती है। यह पुस्तक है चिंतक एवं विचारक मोतीलाल जैन की पुस्तक ‘समग्र दृष्टिकोण’।

दृष्टिकोण व्यक्ति की आंतरिक वैचारिक स्थिति का द्योतक होता है। दृष्टिकोण की अवधारणा को मनोविज्ञान के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। मनोवैज्ञानिक गाॅर्डन आलपोर्ट के अनुसार दृष्टिकोण मनुष्य के मानसिक स्वभाव पर आधारित होता है जिस पर उसके परिवेश के दिन प्रति दिन के व्यवहार का सीधा असर पड़ता है। दृष्टिकोण हमेशा किसी विशेष को इंगित करता है। मनोवैज्ञानिक ईगली और चैकेन के अनुसार किसी भी चीज को विचार की वस्तु में परिवर्तित किया जा सकता है जो कि दृष्टिकोण की वस्तु बन सकती है। एक ही वातावरण, परिस्थिति और अनुशासन में रहते हुए भी हर व्यक्ति के विचार ओर चिंतन में अंतर होता है। यही अंतर प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रदर्शित करता है। वस्तुतः दृष्टिकोण का आधार व्यक्ति के संस्कार होते हैं। ये संस्कार भी दो प्रकार के होते हैं। पहला संस्कार व्यक्ति हैरीडिटी के रूप में जन्म से ही अपने साथ लाता है। दूसरा संस्कार उसे शिक्षा और वातावरण से मिलता है।  ये दोनों संस्कार जब सकारात्मक विचाारों को ग्रहण करते हैं तो व्यक्ति में स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास होता है। यह स्वस्थ दृष्टिकोण व्यक्ति को राष्ट्र, राष्ट्र के निवासियों, प्रकृति, प्रकृति की उपादेयता के बारे में चिंतनशील बनाता है। जब दृष्टिकोण के साथ समग्रता का भाव हो तो जीवन के प्रत्येक पक्ष उसमें समाहित हो जाते हैं। ‘समग्र दृष्टिकोण’ वह पुस्तक है जो आमजन जीवन, धर्म, राजनीति और व्यक्ति की एक साथ चर्चा करती है। 

‘समग्र दृष्टिकोण’ में लेखक मोतीलाल जैन ने अपने लेखों को संग्रहीत किया है। यूं तो प्रत्येक पुस्तक में ‘समर्पण’ के शब्द लेखक के निहायत व्यक्तिगत भावनात्मक विचार होते हैं, जिनके द्वारा लेखक के समग्र विचारों को अथवा उसके लेखकीय संस्कार को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है। किन्तु कई बार ‘समर्पण’ के शब्दों से ही लेखक के लेखकीय व्यक्तित्व एवं लेखकीय संस्कार का सांगोपांग परिचय मिल जाता है। ‘समग्र दृष्टिकोण’ को पुनः पढ़ते समय भी ‘भावांजलि’ के रूप लिखी गई ‘समर्पण’ की पंक्तियां लेखक मोतीलाल जैन के लेखकीय संस्कार की बुनियाद से साक्षात्कार करा देती हैं- ‘‘ मेरे शब्द, मेरे विचार, मेरी क्रियाशीलता और रचनात्मक बोध, मेरे पितृ पुरुष की व्यक्ति चेतना का प्रतिबिम्बन और ध्वनि है। उनकी चेतना हमारा आत्मविश्वास बन कर जीवन के प्रत्येक सोपान पर हमें जागृत करता है और वह शक्ति देता है कि वे प्रतिपल हमारे साथ हैं। यही हमारा आत्मविश्वास है जो हमारी ऊर्जा बन कर हमें गति देता है। उनकी स्मृति को प्रणाम करता हुआ मैं अपना यह संकलन उन्हें समर्पित करता हूं।’’ समर्पण की इन पंक्तियों के साथ लेखक ने अपने पिता जो ‘कक्का जी’ कहलाते थे को समर्पित किया किन्तु इन पंक्तियों की मूल भावना अपने उन सभी पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने की रही जिनसे उन्हें जीवन की सूक्ष्मताओं को समझने, बूझने और जानने की क्षमता मिली। 

पुस्तक में पहला लेख है ‘पलायनवाद और वीतरागता’। 29 जून 1932 को सागर में जन्में मोतीलाल जैन को औद्योगिक सम्पदा विरासत में मिली। उन्होंने जहां इस सम्पदा का संरक्षण एवं विकास किया तथा देश के प्रतिष्ठित उद्योगपतियों में स्थान पाया वहीं अपनी अंतःचेतना के बल पर धर्म, दर्शन, राजनीति और संस्कृति का समय-समय पर आकलन किया और निष्कर्षों को भी सामने रखा। पुस्तक का प्रथम लेख ‘पलायनवाद और वीतरागता’ उनकी अंतःचेतना का प्रतिफलन है। वे अपने इस लेख में पलायनवाद के कारणों की व्याख्या करते हैं वे लिखते हैं कि ‘‘मन विकारों से भरा होना और शरीर से श्रम करने से जी चुराना तथा भयभीत रहना ही निष्क्रीयता और पलायनवाद को प्रोत्साहन देता है इससे मनुष्य कर्तव्य से च्युत हो जाता है।’’ अपने इसी लेख में वे आगे वीतरागता पर प्रकाश डालते हैं। वे लिखते हैं कि - ‘‘सब सुखी हों, सब का कल्याण हो, ऐसा करुणा का स्रोत अंदर से मन को भिगोए रहता है और मन द्रवित रहता है, तो उदासीनता का सच्चा अभ्युदय होता है। यही उदासीन भाव दृढ़ता को पा कर जब अंतरेग को सराबोर रखने में सफल होता है तो मनुष्य का आत्मा से आत्म-परिणाम और आत्म-स्वभाव से सीधा नाता जुड़ जाता है और संसार के सभी अन्य द्रव्यों से, यहां तक कि अपने स्वयं के शरीर से भी मोह, राग व आसक्ति हट जाती है। ऐसा होने पर ही राग बीत गया ऐसा कहा जाता है। यह सच्चे वीतरागी की विलक्षण योग्यता है।’’
संसार में रहते हुए सांसारिकता से विमुक्त रहना दुश्कर कार्य है। जब व्यक्ति कर्म की बात करता है तो उस कर्म के सफत या असफल होने को वह भाग्य से जोड़ने लगता है। भाग्य और पुरुषार्थ के बारे में चिंतन करते हुए लेखक मोतीलाल जैन ने ‘भाग्य (कर्मफल) और पुरुषार्थ’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा है कि भाग्य पुरुषार्थ से ही निर्धारित होता है। अपने एक अन्य लेख ‘बदलता सोच’ में आधुनिक जीवनचर्या और पारम्परिक जीवन शैली के अंतर को बहुत सुंदर ढंग से सामने रखा है। इसमें वे कटाक्ष के साथ यथाथ्र को सामने रखते हैं और पाठकों को आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करते हैं। उदााहरण देते हुए वे लिखते हैं -‘‘आज दूरदर्शन ने ‘योगी’ के माध्यम से खाना खाने से पहले हाथ धोने का महत्व समझाया। आज का पढ़ा-लिखा वर्ग किसको समझााइश देना चाहता है। खुद को या अंग्रेजी सभ्यता में रंगे छुरी-कांटे से खाने वालों को, या गरीब वर्ग को। शायद सभी को यह शिक्षा उपयोगी है। विडम्बना यह है कि कुछ सालों से हम भारत के शहरी लोगों ने अपने बुजुर्ग लोगों को गंवार, अनपढ़ और जाहिल समझना शुरू कर दिया है। हमें परम्परा से जो जीवन शैली मिला करती थी उसमें इस नई सभ्यता ने बहुत गड़बड़ कर दिया है और उसमें विकृति पैदा कर दी है।’’ लेखक ने सिर्फ नई सभ्यता से उत्पन्न विकृति की ही बात नहीं की है अपितु पारम्परिक जीवन शैली का भी स्मरण किया है। लेखक के अनुसार - ‘‘हमारी परम्परा रसोई की शुद्धता पर ही आधारित थी।रसोई में जूते-चप्पल तो दूर, अशुद्ध वस्त्र तक ले जाना वर्जित था। नहा-धो कर ही भोजन किया जाता था। बर्तनों एवं गंदे हाथों की शुद्धि जल एवं राख अथवा साफ मिट्टी से ही की जाती थी। यहां तक कि भोजन पालथी लगा कर, बैठ कर शांतिपूर्वक किया जाता था। आजकल की पाश्चात्य सभ्यता और पढ़े-लिखे होने के अहंकार ने हमारी तमाम विधियों को उलट दिया है। अब तो टाॅयलेट कम बेडरूम सभ्यता है। जूते पहन कर भोजन करना ओर चप्पलें पहन कर रसोई बनाने का फैशन है। कई दिनों का बासी और खराब भोजन खाने को रख कर फ्रिज रसोई में क्रांतिकारी कार्य कर रहे हैं।’’ यह सच है कि जीवन शैली बदलती है तो हमारी सोच बदलती है और सोच के साथ दृष्टिकोण बदल जाता है। वर्तमान में पाश्चात्य प्रभावित जीवन शैली ने लगभग हरेक व्यक्ति को उपभोक्ता बना दिया है। जब व्यक्ति का दृष्टिकोण बाजार केन्द्रित हो जाए तो वह आत्मिक शांति को भुला कर नफा-नुक्सान में डूबता चला जाता है। भले ही इस फेर में वह अपने स्वास्थ्य ओर प्रतिष्ठा को भी दांव में लगा बैठता है। 

‘समग्र दृष्टिकोण’ में धर्म और धार्मिक दृष्टिकोण की भी चर्चा की गई है। ‘धर्म का स्वरूप और धर्मान्धता’ शीर्षक लेख में लेखक मोतीलाल जैन ने लिखा है - 
‘‘ जिन की ध्वनि है ओंकार रूप ।
  निर-अक्षर मय, महिमा अनूप ।।
 लोक में ऐसा कहा जाता है कि भगवान आदिनाथ ने ऐसा कहा, ऐसा समझा और कि भगवान महावीर ने ऐसा उपदेश दिया है। पूर्वाचार्यों ने आगम में जो लिखा है उससे यह भासित होता है कि केवलज्ञान हो जाने के उपरांत तीर्थकर तो इच्छारहित मौन हो जाते हैं।’’ लेखक आगे लिखते हैं कि -‘‘ऐसी दशा में तो शब्दों का उच्चारण तो हो ही नहीं सकता है।’’ लेखक धर्मांधता के बारे में चर्चा करते हुए लिखते हैं कि - ‘‘ हम लोगों को तो अपने रीत-रिवाजों और क्रियाकाण्डों ने ऐसा जकड़ रखा है कि हम अन्य दूसरों की बात शांति से सुनना भी नहीं चाहते हैं। समानता, सहकारिता और सहयोग की तो मात्र बातें होतीं हैं, मन तो सदैव पक्षपात से ही पीड़ित रहता है। पक्षपात से पीड़ित मनुष्य यदि निरपेक्षता की बात करे और अपनी बात के प्रभाव से अन्य को अपने पक्ष में लाने को लालायित रहता हो और व्याकुल रहता हो तो उसे कैसे उमझाया जा सकता है।’’

अपने एक और लेख ‘असाता ही अधर्म’ में मोतीलाल जैन ने अधर्म को स्पष्ट करने के लिए सरल शब्दों में असाता की व्याख्या की है -‘‘असाता यानी साता नहीं। साता यानी सुकून-शांति-चैन आदि। यह साता इच्छाओं की आंशिक पूर्ति हो जाने से नहीं होती है। वस्तुओं, पदार्थाे एवं इष्टजनों के मिल जाने पर तो उनके बिछुड़ जाने का भय फौरन सताने लगता है और हम उनकी सुरक्षा के लिए बेचैन होने लग जाते हैं। बेचैनी बढ़ना ही चिन्ता का कारण बनता है और इससे असाता में वृद्धि होने लगती है।’’

पुस्तक ‘समग्र दृष्टिकोण’के सम्पूर्ण कलेवर को दो भागों में बांटा गया है। पहले भाग में धर्म, जीवन, जीवनशैली आदि पर चिंतनयुक्त लेख हैं तो दूसरे भाग में राजनीति, अपसंस्कृति और भ्रष्टाचार को लक्ष्यित किया गया है। दूसरे भाग के प्रथम लेख ‘‘देश का सौभाग्य और दुर्भाग्य’’ में देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के बीच बिगड़त अंतर्संबंधों को रेखांकित किया है। लेखक मोतीलाल जैन लिखते हैं कि -‘‘अभी दो दिन पूर्व अख़बार में एक लेख पढ़ा। उसमें मंत्री महोदय ने किसी व्यक्ति की उच्च न्यायालय से जमानत हो जाने को दुर्भाग्यपूर्ण कहा। जब न्यायाधीशों के फैसले व उनकी राय दुर्भाग्यपूर्ण हो सकती है तो इस देश को सौभाग्य कौन प्रदान करेगा? जब न्यायपालिका को ही शासन देश का दुर्भाग्य कहने लगे तो फिर उस देश का सौभाग्य कहां छिपा है, यह शासन, मंत्री या प्रशासन ही बता सकते हैं।’’ 

इस पुस्तक में एक और महत्वपूर्ण लेख है जो वर्तमान व्यवस्थाओं पर तीखा कटाक्ष करते हुए सभी से चिंतन-मनन करने का आग्रह करता है। यह लेख है-‘‘सरकार और भगवान’’। इसमें लेखक मेातीलाल जैन निर्भीकता से लिखते हैं कि -‘‘आज की बीसवीं सदी के अंत में दो ही चीज़ें सर्वव्यापक हो रही हैं- एक भगवान तो दूसरी सरकार। दोनों ही अदृश्य हैं। यानी इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देती हैं। दोनों को देखने, समझने व जानने के लिए ज्ञान व बुद्धि के नेत्र चाहिए। सो या तो पढ़े-लिखे सम्पन्नवर्ग के पास बुद्धि और चालाकी रहती है या फिर परम्परा से सत्तासीन घरानों में ही इस ज्ञान का दीप सदैव प्रकाशवान रहता है। भगवान का दर्शन कराने के लिए तो वेद, पुराण और शास्त्र हैं या फिर तीर्थों और मंदिरों में कुंण्डली जमाए, फन फैलाए हुए मठाधीश, पुजारी, पंडे, प्रभारी, मंत्री, प्रचारक आदि हैं। इनके द्वारा जनता को अपनी औकात, उद्गम स्थान, कुल गोत्र आदि सहित भगवान के विभिन्न रूपों व शक्तियों का दर्शन कराया जाता है और ज्ञान कराया जाता है।’’

इसी लेख में लेखक ने सरकार के संबंध में लिखा है कि-‘‘इसी प्रकार सरकार का दर्शन कराने को हमारा संविधान है। जिसे मुख्यतया दिल्ली में सात पर्दो के भीतर तालों में सुरक्षित रखा गया है और शायद उसकी एक ताम्रपत्रलिपि को ज़मीन के अंदर सीमेंट, कांक्रीट के मजबूत बाॅक्स में गाड़ दिया गया है ताकि हज़ार वर्ष बाद की पीढ़ी उसे ज्यों की त्यों सुरक्षित देख सके। सरकार का दर्शन कराने के लिए दिल्ली एवं सभी प्रादेशिक तीर्थ रूपी राजधानियों में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल हैं। इसके साथ-साथ सरकार की शक्तियों को बताने के लिए मंत्री, उपमंत्री, सांसद, विधायक हैं जो समय-समय पर हमें सरकार के विराट रूप का दर्शन कराते रहते हैं।’’

सन् 2007 में श्री खेमचंद जैन चेरीटेबल ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक समसामयिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसकी प्रासंगिकता प्रत्येक काल और दशाओं के साथ जुड़ी हुई है। इस पुस्तक में संग्रहीत लेखों पर शंकरदत्त चतुर्वेदी, डाॅ. जयकुमार जलज, डाॅ. सुरेश आचार्य, प्रो. कांतिकुमार जैन, डाॅ. आर डी मिश्र, डाॅ. शेखरचंद जैन की विशेष टिप्पणियां भी समाहित हैं जो पुस्तक के कलेवर तथा पुस्तक के लेखक मोतीलाल जैन के विचारों को समझने में सहायता प्रदान करती हैं। यह पुस्तक बार-बार पढ़े जाने योग्य है क्यों कि यह वर्तमान परिदृश्य के साथ ही हमें अपनी जड़ों से भी जोड़ती है तथा मनन-चिंतन कर निष्कर्षों तक पहुंचने को प्रेरित करती है।
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( दैनिक, आचरण  दि.02.11.2020)
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