Dr. Varsha Singh |
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि राधाकृष्ण व्यास 'अनुज' पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश को ....
सागर: साहित्य एवं चिंतन
सामाजिक सरोकारों के कवि राधाकृष्ण व्यास ‘‘अनुज’’
- डाॅ. वर्षा सिंह
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नाम: राधाकृष्ण व्यास ‘‘अनुज’’
जन्म: 01 अप्रेल 1956
जन्म स्थान: मौलवी चिरागउद्दीन का फर्श, परकोटा सागर (म. प्र.)
माता-पिता:स्व. श्रीमती रमाकांति व्यास एवं स्व. नन्हूराम व्यास
शिक्षा : बी. काम, एल. एल. बी
लेखन विधा: गद्य एवं पद्य
प्रकाशित पुस्तक: पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं
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सागर नगर के परकोटा क्षेत्र में मौलवी चिरागउद्दीन के फर्श में निवासरत श्री नन्हूराम व्यास एंव श्रीमती रमाकांति व्यास के पुत्र के रूप में 01 अप्रेल 1956 को जन्मे राण्धाकृष्ण व्यास को जन्म से ही देशभक्ति एवं देशप्रेम का वातावरण मिला। उनके पिता श्री नन्हूराम व्यास स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे गरम दल विचारधारा के थे। उनके पास अन्य सेनानियों का भी आना-जाना लगा रहता था। घर में वैचारिक चर्चाएं होती रहती थीं जिनका बाल्यावस्था से ही राधाकृष्ण व्यास के मानस पर प्रभाव पड़ा। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बी काॅम किया तथा इसके बाद कानून की पढ़ाई में रूचि जाग्रत होने से एल.एल.बी. किया। अपने पिता से मिला नेतृत्व का गुण उनके छात्र जीवन में उभर कर सामने आया और सर हरीसिंह गौर महाविद्यालय (नाईट कालेज) सागर म. प्र. में सन् 1979 में छात्रसंघ के सचिव बने। इसके बाद छात्रों के बीच लोकप्रियता के चलते सन् 1980 में छात्रसंघ के अध्यक्ष बने। एल.एल बी. करने के उपरांत अधिवक्ता संघ सागर म. प्र. के सन् 1997 से 1999 तक सह सचिव रहे।
राधाकृष्ण व्यास रंगकर्म एवं पत्रकारिता के क्षेत्र रुचि रखने के साथ ही सामाजिक कार्यों में संलग्न रहते हैं। वे हिन्दू मुस्लिम समन्वय समिति के संयोजक भी हैं। वे ‘‘दैनिक गोलदुनिया’’ में लेखन करते रहे हैं। ‘‘साप्ताहिक सागर सत्ता’’ का संपादन किया तथा ‘‘साप्ताहिक बेलिहाज’’ के प्रकाशक एवं प्रधान सम्पादक रहे हैं। वर्तमान में कम्पनी बाग के पास गोपालगंज में निवास करते हुए वे अधिवक्ता का कार्य करने के साथ ही साहित्य सृजन में संलग्न हैं। सन् 1974 से लेखन कार्य में संलग्न रहते हुए सम-सामयिक समस्याओं पर लेख, कविता, नाटक व व्यंग आदि लिखते रहते हैं। अपने लेखन के संबंध में राधाकृष्ण व्यास बताते हैं कि- ‘‘पहली कविता कक्षा पांचवी में पूर्व प्रधान मंत्री श्रद्धेय लाल बहादुर शास्त्री जी की शोक सभा के लिये स्लेट पर लिख कर पढ़ी थी जिसे सुरक्षित रखने का ज्ञान नही था। सन 1975 में मेरी प्रथम कविता ने दिमाग पर दस्तक दी ‘‘घिसा अधन्ना’’। उस समय मैं ढोलक बीड़ी में छोटे से पद पर सेवारत् था। उस कविता को स्व. सेठ श्री मोतीलाल जी, जो स्वयं बहुत बड़े साहित्यकार रहे है, ने बहुत सराहा और लिखने को प्रोत्साहित किया।ं फिर क्या था कलम ने रुकने का नाम नहीं लिया।’’
अपने उपनाम ‘‘अनुज’’ के संबंध में राधाकृष्ण व्यास बताते हैं कि-‘‘सन 1978 में देश के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार एवं हमारे शहर के सभी के प्यारे भाई शिवकुमार श्रीवास्तव जी ने मुझे उपनाम ‘‘अनुज’’ दिया।’’
सागर : साहित्य एवं चिंतन - डॉ. |
राधाकृष्ण व्यास मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य संम्मेलन एवं बज़्मे दाग के सदस्य हैं तथा वे बुन्देलखण्ड हिंदी साहित्य संस्कृति विकास मंच की काव्य गोष्ठी का नियमित संचालन करते हैं। वे नगर की अग्रणी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था श्यामलम से भी संम्बद्ध हैं। राधाकृष्ण व्यास ‘अनुज’ की कविताओं में सामाजिक सरोकार अपने अनूठे अंदाज़़ में मुखर होते हैं। उनकी चर्चित कविता ‘‘मैं घिसा अधन्ना हूं’’ देखिए -
कल के इतिहास का -
फटा हुआ पन्ना हूं........!
भूत रहा गर्दिश में मेरा,
है वर्तमान संघर्षशील
सुख की अनुभूति पाने को
मैं हूं प्रयत्नशील,
मैं भविष्य के प्रति चैकन्ना हूं...!
जीवन के जंगल से-
अरमानों के हरे दरख्त
लोगो ने -
मेरी इच्छा के विरुद्ध
काटे वक्त बेवक्त
मैं आहांे की किताब का
अनफटा रमन्ना हूं
जो चाहा मिला नहीं
हृदय कमल खिला नहीं
दर्द बने यार मेरे
संघर्ष से हमें गिला नहीं
एक अधूरी अनबूझी
अतृप्त तमन्ना हूं...!
मेरी शिराओं में हैं मधुरस
किस्मत में लिखा नही जस
चोकर फेंका गया गन्ना हूं...!
मैं घिसा अधन्ना हूं
कल के इतिहास का
फटा हुआ पन्ना हूं.....!
जब जीवन के प्रति चिंतन हो और सामाजिक दायित्वों से जुड़ाव हो तो काव्य में दार्शनिक तत्व शामिल होना स्वाभाविक है। इंसान उन्नति के कोई भी आयाम छू ले किन्तु उसे यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसने जो कुछ पाया है उसके बदले कुछ खोया भी है। इसी तरह जो जमीन को छोड़ कर ऊंचाइयों की ओर बढ़ता है उसे एक न एक दिन ज़मीन पर वापस आना पड़ता हैं। कुछ यही दार्शनिक भाव है राधाकृष्ण व्यास ‘अनुज’ की इस कविता में -
उड़ान कितनी भी ऊची हो
नीचे तो आना होगा।
कुछ पाने की चाह हैं-मन में
कुछ तो खोना होगा।।
प्रीत की रीत बड़ी निराली
कहीं मुर्हरम कही दिवाली
होठों पर जब लगते ताले
फिर कैसा हंसना कैसा रोना।
अरमानों की लुटती डोली
अपने खेले खून की होली
तू क्या है तेरी हस्ती क्या
तू तो है सिर्फ एक खिलौेना।
मधुमास सी बीती जवानी
शेष नही अब कोई कहानी
पतझर सा जब आया बुढ़ापा
बचा नही कोई देने को पानी
उम्र के अन्तिम पड़ाव पर-सोचो
हमने क्या पाया क्या खोया
उड़ान कितनी भी ऊंची हो
नीचे तो आना होगा
कुछ पाने की चाह है मन मे
कुछ तो खोना होगा।
कवि राधाकृष्ण व्यास |
आज एकल परिवार का चलन इस कदर बढ़ गया है कि संयुक्त परिवार की संकल्पना टूटती दिखाई देती है। जब भाई-भाई परस्पर अलग होते हैं तो ज़मीन-जायदाद को ले कर विवाद भी खड़े हो जाते है। परस्पर कटुताएं बढ़ने लगती हैं। यह घर-घर का किस्सा हो चला है। संयुक्त परिवार की परम्परा रखने वाली भारतीय संस्कृति में पारिवारिक विखंडन का दृश्य देख कर ‘‘अनुज’’ जैसे कवि का विचलित होना स्वाभाविक है। इस विषय केन्द्रित उनकी यह कविता ध्यान दिए जाने योग्य है-
दिल रोता, लब हंसते हैं
अपने अपने घर के
अपने अपने
अलग अलग किस्से हैं।
नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे
खुले घूम रहे हत्यारे
सुरक्षित कोई नहीं यहां पर
पूछो तो कहते- अच्छे हैं
घर घर में है नागों का डेरा
ये मेरा है, और ये है तेरा
घर में ही शेर बने हैं
औरों को समझते भुने चने हैं
झूठा है संसार सारा
एक यही सच्चे हैं
दिल रोता, लब हंसते हैं
अपने अपने घर के
अलग अलग
अपने अपने किस्से हैं।
राधाकृष्ण व्यास ‘अनुज’ की कविताएं उनके समाज के प्रति चिंतन को दर्शाने के साथ ही उनकी काव्य प्रतिभा को भी रेखांकित करती है। वे निश्चितरूप से सामाजिक सरोकारों के कवि कहे जा सकते हैं।
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( दैनिक, आचरण दि. 15.11.2019)
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