स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत नौवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के कवि आर.के. तिवारी के भजन संग्रह "हल्ला कन्हैया का" का पुनर्पाठ।
सागर : साहित्य एवं चिंतन
पुनर्पाठ : ‘हल्ला कन्हैया का’ भजन संग्रह
- डॉ. वर्षा सिंह
इस बार पुनर्पाठ में मैंने जिस कृति को चुना है वह भक्तिरस से परिपूर्ण है। कृति का नाम है ’’हल्ला कन्हैया का‘‘। यह भजन संग्रह है आर. के. तिवारी का। भक्ति हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। हम एक परमशक्ति को किसी न किसी रूप में स्वीकार करते हैं और उसकी आराधना करते हैं। हमें लगता है कि जब हम पर कोई संकट आएगा तो यह परमशक्ति हमें उस संकट से बचा लेगी। यह विश्वास ही तो है भक्ति का मूल आधार। चाहे राम कहें, कृष्ण कहें, अल्लाह या ईसा मसीह कहें, किसी भी रूप या स्वरूप में हम उसकी सत्ता को स्वीकार करें किन्तु उसकी कल्पना हमारे भीतर आत्मविश्वास और धैर्य का संचार करती है। अपनी भक्ति को प्रकट करने तथा उस परमशक्ति से तादात्म्य स्थापित करने के लिए कोई नाचता है तो कोई गाता है, कोई चित्र बनाता है तो कोई साहित्य की रचना करता है।
विपरीत राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों में जनमानस में आत्मविश्वास जगाने के लिए समय-समय पर संतों ने भक्तिकाव्य की रचनाएं कीं। हिन्दी साहित्य में एक पूरा काल ही भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है क्यों कि इस अवधि में सर्वाधिक भक्ति रचनाओं की सर्जना हुई। ये सभी लिखित नहीं थीं, इनमें कुछ वाचिक भी थीं जिन्हें दूसरे लोगों के द्वारा लिपिबद्ध किया गया। रामचंद्र शुक्ल ने ‘‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’’ में कालखंड निर्धारित करते हुए भक्तिकाल को 1375 से 1700 तक माना है। इस कालखण्ड को हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग माना गया है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। भक्ति काव्य की अलख जागी दक्षिण भारत से। दक्षिण में आलवार हुए जो अधिक पढे-लिखे नहीं थे, किन्तु सत्य के ज्ञानी थे। उन्होंने अपने काव्य द्वारा जनमानस को ईश्वर की परमसत्ता के प्रति मोड़ा। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे।
रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद का खुल कर विरोध किया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिद्ध कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माधव तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जनसमाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं- ज्ञानाश्रयी शाखा, प्रेमाश्रयी शाखा, कृष्णाश्रयी शाखा और रामाश्रयी शाखा, प्रथम दोनों धाराएं निर्गुण मत के अंतर्गत आती हैं, शेष दोनों सगुण मत के।
कुछ ने ईश्वर को साकार माना तो कुछ ने निराकार। संत साहित्य में सूरदास, नामदेव, ज्ञानेश्वर, तुलसीदास, मीराबाई, कबीर, दादूदयाल, रहीम, रसखान, रैदास आदि महत्वपूर्ण संत कवि हुए। आज भी हम उन्हीं के भजनों को गा कर, सुन कर आत्मिक सुख की तलाश करते हैं। वर्तमान बाज़ारवाद एवं भौतिकतावाद के दौर में भक्तिकाव्य का नवसृजन कहीं पीछे छूट चला है। हिन्दी साहित्य में अनेक काव्य विधाओं के होते हुए भी भक्तिकाव्य का सृजन कम हो गया है। जो सृजन हो रहा है उसमें भजन प्रमुख हैं। इनकी विशेषता इनकी गेयता में होती है। इन भजनों में धर्म, दर्शन, जीव, जगत, ब्रह्म आदि संबंधी विचार काव्यात्मक रूप में पिरोए जाते हैं। साहित्य के अंतर्गत एक विरोधाभासी स्थिति यह है कि भजनों को धर्म की वस्तु मान कर उतनी गंभीरता से आज नहीं लिया जाता है जितनी गंभीरता से भक्तिकाल के काव्य को लिया गया। धार्मिक उत्सवों के समय भजन डिज़िटल रूप में बजाए जाते हैं और सुने जाते हैं किन्तु शेष समय इन्हें साहित्य की श्रेणी में गंभीरता से नहीं लिया जाता है। जबकि भजन भी साहित्य की वह प्रस्तुति है जिसमें भावना, छंद, लय, ताल, आदि सभी कुछ होता है। ‘‘हल्ला कन्हैया का’’ भजन संग्रह पहली बार पढ़ते हुए मुझे उसमें संग्रहीत कवि आर. के. तिवारी के भजनों में भक्तिरस के जिस भावप्रभाव का अनुभव हुआ, वही अनुभव उसका पुनर्पाठ करते समय भी हुआ। जैसा कि संग्रह के नाम से ज्ञात हो जाता है कि इस संग्रह में संग्रहीत भजन श्रीकृष्ण की लीलाओं को समर्पित हैं। जब कृष्णभक्ति काव्य की बात चलती है तो स्वतः स्मरण हो आता है भक्तकवि सूरदास का। सूरदास ने सखाभाव से कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। इसीलिए वे कृष्ण को उलाहना देने से भी नहीं चूके हैं। जबकि तुलसीदास जब श्रीराम के जीवन का वर्णन करते हैं तो वे स्वयं को उनका दास या सेवक मानते हैं। अतः उनके काव्य में उस प्रकार उलाहने का स्वर सुनाई नहीं देता है जैसा कि सूरदास के काव्य में। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम है और श्रीकृष्ण लीलाधारी। इसीलिए श्रीकृष्ण के भजन लिखते समय सखाभाव स्वतः आ जाता है और कृष्ण के नटखटपन का बिम्ब काव्य में समाने लगता है।
भक्तिकाल के मध्यकालीन परिवेश से आज का परिवेश पूरी तरह भिन्न है। आज के समाज में धार्मिक कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। आज सामाजिक एवं धार्मिक सौहाद्र्य के वातावरण में जो कृष्ण काव्य रचा जाएगा उसमें नटखट माखनचोर एवं बांसुरी वाले कृष्ण की शरारतों और रास के वर्णन को अधिक स्थान मिलेगा। यही विशेषता मिलती है ‘‘हल्ला कन्हैया का’’ भजन संग्रह के भजनों में। इन भजनों में निश्चिंत मन की उन्मुक्त भक्ति को अनुभव किया जा सकता है। भक्ति काव्य की एक विशेषता यह भी है कि उनमें आंचलिक बोली-भाषा का प्रयोग किया जाता है। बृज और अवधी की तरह बुंदेली में भी कृष्ण काव्य लिखे गए हैं। कवि आर. के. तिवारी ने भी अपने भजन में बुंदेली में लिखे हैं इसीलिए इन भजनों में माटी के सोंधेपन जैसा एक आकर्षण और सहजता है। उदाहरण देखें -
कान पकर के कै रई यशोदा
जो का मोहन कर डारो
पूरो गावों बाहर ठारों
भारी भीड़ लगी है दुआरे
गांव के सबरे बाहर ठाड़े
कोउ की टुकड़ा-टुकड़ा गगरी
रो-रो कै रई हमसे सबरी
न्याय हमारो करवाओ
कृष्णकथा का बखान हो और उसमें यमुना में नहाती हुई गोपियों के वस्त्रहरण की शरारत का स्मरण न किया जाए यह सम्भव नहीं है। इस भजन संग्रह में भी एक भजन इसी संदर्भ का है जिसमें गोपियां कृष्ण के द्वारा वस्त्र उठा ले जाने की शिकायत कर रही हैं -
ले गओ, ले गओ, ले गओ री
चीर मुरारी ले गओ री
हम गए कल री जमुना नहावे
छोड़ चुनरिया अपने किनारे
घुस गए जल में हम तो सारे
श्याम कहूं से आ गओ री
चुपके-चुपके आओ कन्हैया
चोरी-चोरी आओ कन्हैया
झपट चुनरिया ले गओ री
श्री कृष्ण के बांसुरी वादन से जो स्वर लहरियां निकलती थीं वे गोप, गोपियां और राधा, सभी को सम्मोहित कर लेती थीं। आकर्षण इतना कि जेठ की तपती दोपहर में राधा जब कृष्ण की बांसुरी का स्वर सुनती है तो वह स्वयं को रोक नहीं पाती है और पानी भरने का बहाना करके कृष्ण से मिलने निकल पड़ती है। कवि ने इस दृश्य का बहुत सुन्दर वर्णन किया है -
तपती दुफर में निकरी है राधा
सुन मोहन की बांसुरिया
सर पै धरे चली गगरियां
सोला गज को घंघरा पैने
सात गजी की सारी पैने
पांच गजी की चुनरिया
सर पै धरे चली गगरियां
कृष्ण और होली के त्यौहार का गहरा संबंध है। जिस प्रकार कृष्ण का स्मरण मन को प्रफुल्लित कर देता है ठीक उसी प्रकार होली का त्यौहार मन को रंगों के उत्साह से भर देता है। श्री कृष्ण और राधा के बीच की होली जीवन में उमंग, उत्साह और आह्लाद की पर्याय है। इस दृश्य की कल्पना कीजिए कि बृज में बनवारी अर्थात् कृष्ण होली खेल रहे हैं और गोपिकाएं उनसे बचने का प्रयास करती हुई राधा को सचेत कर रही हैं -
भगो, भगो राधा! भगो, भगो री
रंगवा लयै है बनवारी
रंगवा लयै है बनवारी
भगो, भगो री ...
बृज की ग्वालन दौड़त फिर रईं
श्याम से सबरी लुकाछिपी कर रईं
कै रई राधा - भगो, भगो री
रंगवा लयै है बनवारी
भगो, भगो री ...
‘‘हल्ला कन्हैया का’’ भजन संग्रह के भजनों की सबसे बड़ी खूबी उनकी गेयता है। जो पढ़ने के साथ ही गुनगुनाने को विवश कर देती है। और यही विशेषता भजन-शैली को एक जनकाव्य-शैली बना देती है। कवि आर.के. तिवारी द्वारा रचित ये भजन स्वयं पुनर्पाठ करने के लिए प्रेरित करते है।
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( दैनिक, आचरण दि.25.09.2020)
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