प्रिय ब्लॉग पाठकों,
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत सातवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के कवि स्व. जी.पी.चतुर्वेदी '' के काव्य संग्रह "समय के पृष्ठ" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
सागर: साहित्य एवं चिंतन
पुनर्पाठ: ‘समय के पृष्ठ’ काव्य संग्रह
-डॉ. वर्षा सिंह
इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ की पुस्तक ‘समय के पृष्ठ’ को। हम अपने जीवन को समय में बांटते हैं और समय से अंाकते हैं। बचपन का समय, जवानी का समय, बुढ़ापे का समय, अच्छा समय, बुरा समय - मानों हम समय से संचालित होते हैं। समय क्या है? इसे परिभाषित करना टेढ़ी खीर है। दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी एक मत हो कर समय को परिभाषित नहीं कर सके। अरस्तू ने कहा कि ‘‘समय गति का प्रभाव हो सकता है, लेकिन गति धीमी या तेज हो सकती है पर समय नहीं।’’ आइंस्टाइन ने अपने सापेक्षतावाद के सिद्धांत में अरस्तू की बात को नकारते हुए कहा कि समय की गति में परिवर्तन संभव है। जाॅन एलीस मैकटैगार्ट के अनुसार समय व्यतीत होना एक भ्रम मात्र है केवल वर्तमान ही सत्य है। मैकटैगार्ट ने समय के अपने सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए ‘‘ए,बी,सी श्रृंखला’’ द्वारा विश्लेषण पद्धति बताई। मैकटैगार्ट का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह था कि ऐतिहासिक घटनाओं तथा मानवरचित साहित्य के गुण एक जैसे होते हैं। उदाहरण के लिए मानवरचित साहित्य तथा भूतकाल की ऐतिहासिक घटनाओं की तुलना करने पर, दोनों में पूर्व और पश्चात के साथ भूत, वर्तमान और भविष्य होता है जो यह दर्शाता है कि भूतकाल घटनाओं की स्मृति मात्र है तथा साहित्यकार की कल्पना के अतिरिक्त उसका अस्तित्व नहीं है। समय की व्याख्या करते हुए मैकटैगार्ट ने साहित्य की समीक्षा कर डाली। वस्तुतः साहित्य समय को आकार देता है। चाहे वह बीता हुआ समय हो, वर्तमान का समय हो अथवा भविष्य का समय। साहित्य अपने अस्तित्व के माध्यम से न केवल रचनाकार के समय में पहुंचाता है अपितु रचनाकार को भी सदा जीवित रखता है।
जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ का यह काव्य संग्रह ‘‘समय के पृष्ठ’’ उनकी मृत्यु के उपरांत सन् 1999 में प्रकाशित हुआ। विरासत को सम्हालना एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। उस पर साहित्यिक विरासत को संजोना और प्रकाशित करवाना आर्थिक के साथ -साथ गहन भावनात्मक जिम्मेदारी है। 31 जनवरी 1997 को जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों आदित्य चतुर्वेदी तथा अम्बर चतुर्वेदी ‘‘चिन्तन’’ के प्रयासों से इस संग्रह ने पुस्तक का आकार लिया। इसलिए इस पुस्तक को पढ़ते हुए पिता के साहित्य कर्म के प्रति पुत्रों के अवदान का बोध भी बना रहता है। इस पुस्तक में एक सांस्कृतिक परम्परा का निर्वहन ध्वनित होता रहता है। जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ का जन्म 21 जुलाई 1937 को हुआ था। उन्होंने एम.ए., एल.एल.बी. की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद आजीविका की व्यस्तताओं से समय निकाल कर वे कविताएं एवं ललित निबंध लिखते रहे। ‘‘समय के पृष्ठ’’ काव्य संग्रह की कविताओं में तत्कालीन समय का भावबोध, मूल्यबोध ओर शब्दसत्ता का सुन्दर सामंजस्य देखा जा सकता है। जीवन में जैसे-जैसे बाजार की सत्ता बढ़ने लगी वैसे-वैसे आर्थिक विपन्नता, नैराश्य, कुण्ठा और संधर्ष बढ़ने लगा। समकालीन कविता के परिदृश्य में कवि ‘‘अनंत’’ की कविताएं महत्वपूर्ण दस्तक देती हैं। उनकी एक कविता है ‘‘दीप जल गया है’’ जिसमें प्रकाश और अंधकार के माध्यम से तत्कालीन परिदृश्य को बखूबी वर्णित किया है -
दीप एक या अनेक
प्रकाश एक।
जितना प्रकाश बढ़ता है
अंधेरा उतना
उदास होता है
घटता है।
किन्तु न मालूम क्यों
दीपों की संख्या
बढ़ने पर भी
प्रकाश उतना बढ़ नहीं रहा है
अंधकार घट नहीं रहा है
अंधकार का क्षेपक लेते हुए कवि ने विसंगतियों के कारण का आकलन करने का जो प्रयास किया है वह रचनात्मकता और भावप्रवणता के तादात्म्य का अत्यंत प्रभावी प्रतिफलन है। ‘‘सघन तिमिर में सिसक-सिसक कर ’’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां देखिए -
अंधकार में प्रश्नचिन्ह को
कोई देख न पाता
थोड़े से प्रकाश में भी
वह अपना रूप दिखाता
अनचाहे सारे उपक्रम को
अंधकार पनपाता
पर प्रकाश की क्षीण शिखा में
वह विलीन हो जाता
सघन तिमिर में सिसक-सिसक कर
पीड़ा के स्वर पलते
जो प्रकाश के साथ बिखरकर
अपनी गाथा कहते
इस संग्रह में एक छोटी सी कविता है जो हर बार पढ़ते हुए एक नया बिम्ब प्रस्तुत करती है। कविता का शीर्षक है ‘‘आर्डनरी और स्पेशल’’। इस कविता में यथार्थबोध की विलक्षण परिपक्वता है। कविता इस प्रकार है -
मैंने अभावों को समेट लिया है
और कुर्ते, पायजामें में
काम चलाने लगा, किन्तु
एक दिन बस में
एक फुलपेंटधारी मुझसे
अकड़ कर बोला
पीछे बैठो, जगह बहुत खाली है
तुम आर्डनरी और मैं
स्पेशल जीवधारी हूं
मैं तुमसे भारी हूं
इसी संग्रह की एक ओर कविता मुझे बार-बार आकर्षित करती है क्योंकि इस कविता में समय की मूल्यवत्ता के समक्ष व्यक्ति के अस्तित्व की बड़े सीधे सरल शब्दों में और सहजता के साथ व्याख्या की है वह अद्भुत है। कविता का शीर्षक है ‘‘संदर्भ’’ -
वर्तमान के भी / अतीत ओर आगामी
अपनी परिधि/ पृष्ठभूमि/ और
सीमाओं में
सिमटते, बनते, मिटते हैं
हम अपने आप
एक संदर्भ हैं!
आज यहां कल वहां
इतिहास के पन्नों तक / पहुंचने की
एक साध लिए
कई अल्प, पूर्ण या / अर्धविरामों के साथ
संदर्भ ओर इतिहास के
बीव के भंवर में ही / खो जाते हैं
संदर्भ ही रह जाते हैं
जब मूल्यवत्ता की बात होती है तो इस भूमण्डलीकरण और उपभोक्तावाद के दौर में मानवमूल्य का आकलन स्वतः आरम्भ हो जाता है। निर्जीव उपभोक्ता वस्तुओं से जीवित मनुष्यांे की क्रय शक्ति की तुलना मानवमूल्य का निर्धारण करने लगती है और यहीं से मानवमूल्य का ह्रास आरम्भ हो जाता है। इस संग्रह में एक कविता है ‘‘मानवमूल्य’’ जिसमें मानवमूल्य के सौदे का यथार्थपरक वर्णन किया गया है। कविता का एक अंश देखिए -
सच, ईमानदारी, विश्वास
बहुतों के पास से
कोसों दूर चला गया है
इसलिए वस्तुओं का मूल्य बढ़ रहा है
और आदमी का मूल्य घट रहा है
एक छलकते जाम में
लाखों का सौदा हो रहा है
चैराहे पर पड़ा शव
म्यूनिसिपल की गाड़ी
और पुलिस की बाट में
चिरनिद्रा में सो रहा है
मानवमूल्यों का सौदा हो रहा है
एक समृद्ध भाषा शिल्प, सघन बिम्बों से सृजित कवि ‘‘अनंत’’ की कविताओं में समय को लांघती हुई अनेक अंतध्र्वनियां एवं अनुगूंज हैं जो उनके इस काव्य संग्रह ‘समय के पृष्ठ’ को बार-बार पढ़ने को प्रेरित करती है और पाठक को सौंपती है विचारों का एक अनंत और अथाह सागर।
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( दैनिक, आचरण दि.12.08.2020)
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