प्रिर ब्लॉग पाठकों, मेरे द्वारा लिखी सागर से प्रकाशित 'अन्वेषिका' पत्रिका की समीक्षा आज दैनिक 'आचरण' समाचार पत्र में प्रकाशित हुई है। जिसे मैं यहां आप सब से शेयर कर रही हूं।
हार्दिक धन्यवाद आचरण 🙏🌹🙏
दिनांक 03.09.2020
'अन्वेषिका' पत्रिका की समीक्षा
संकट के दौर में एक महत्वपूर्ण पत्रिका
- डॉ. वर्षा सिंह
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पत्रिका - अन्वेषिका (ई-पत्रिका)
अंक - बेटी विशेषांक
वर्ष - 2019-20
प्रधान संपादक - सुनीला सराफ
प्रकाशक - हिन्दी लेखिका संघ, सागर, म.प्र.
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जब एक ओर कादम्बिनी और नंदन जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशन बंद होने की सूचना ने साहित्यप्रेमियों को चौंका दिया, वहीं दूसरी ओर एक ऐसी पत्रिका ऑनलाईन प्रकाशित हो कर सामने आई और पाठकों के द्वारा रुचि ले कर पढ़ी जा रही है। जबकि यह एक स्मारिका है तथा इसका प्रकाशन वार्षिक है। पत्रिका का नाम है- अन्वेषिका। यह हिन्दी लेखिका संघ, सागर, म.प्र. का वार्षिक प्रकाशन है। विगत वर्ष इसका प्रथमांक आया था। सुन्दर मुद्रण के साथ। किन्तु इस वर्ष कोरोना संकट के कारण ई पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया गया। ताकि यह सुगमता से पाठकों तक पहुंच सके। पत्रिका की प्रधान संपादक सुनीला सराफ हैं तथा संपादन सहयोग डॉ. चंचला दवे और डॉ. सरोज गुप्ता ने किया है। साहित्यिक पत्रिका संपादन के क्षेत्र में नवोदित टीम होते हुए भी परिष्कृत कलेवर वाली एक सुन्दर पत्रिका का स्वरूप स्मारिका को दिया है जिससे उसकी साहित्यिक मूल्यवत्ता को महसूस किया जा सकता है।
वर्तमान समय दोहरे संकट का समय है। यह दोहरा संकट है साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन निरंतर बंद होते जाना और दूसरा संकट कोरोना महामारी का। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं की ओर दृष्टि डाली जाए तो दिखाई देता है कि धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, दिनमान जैसी पत्रिकाएं वर्षों पहले बंद हो गईं। इन पत्रिकाओं के बंद होने के पीछे के कारणों को टटोला जाए तो प्रकाशकों का कहना था कि इन पत्रिकाओं के प्रकाशन से उन्हें आर्थिक घाटा हो रहा था। साथ ही यह भी चर्चा उठी कि हिन्दी में साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठकों में कमी होती जा रही है। पाठक संख्या और उत्पादन की मात्रा दोनों परस्पर पूरक कहे जा सकते हैं। यदि कोई पत्रिका पढ़ेगा नहीं तो वह किसके लिए प्रकाशित की जाएगी लेकिन यह मिथक जल्दी ही टूट गया। हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, समीक्षा, पाखी, सामयिक सरस्वती, तद्भव आदि साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रति पाठकों की ललक ने साबित कर दिया कि पाठकों की संख्या में उतनी भी गिरावट नहीं आई है जितनी कि समझी जाने लगी थी।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने वाराणसी से कविता केंद्रित पत्रिका ’कविवचनसुधा’ का प्रकाशन 15 अगस्त, 1867 को प्रारंभ किया था। इस तरह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के 150 वर्ष पूरे हुए। भारतेंदु ’कवि वचन सुधा’ में आरंभ में पुराने कवियों की रचनाएँ छापते थे जैसे चंद बरदाई का रासो, कबीर की साखी, जायसी का पदमावत, बिहारी के दोहे, देव का अष्टयाम और दीन दयाल गिरि का अनुराग बाग। लेकिन जल्द ही पत्रिका में नए कवियों को भी स्थान मिलने लगा। भारतेंदु ने एक स्त्री शिक्षोपयोगी मासिक पत्रिका की जरूरत को शिद्दत से महसूस किया और जनवरी, 1874 में ’बाला बोधिनी’ नामक आठ पृष्ठों की डिमाई साइज की पत्रिका प्रकाशित की। उसके मुखपृष्ठ पर यह कविता प्रकाशित होती थी -
जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति।
जो नारि सोई पुरुष या में कुछ न विभक्ति।।
सीता अनुसूया सती अरुंधती अनुहारि।
शील लाज विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारि।।
पितु पति सुत करतल कमल लालित ललना लोग।
पढ़ै गुनैं सीखैं सुनै नासैं सब जग सोग।।
और प्रसविनी बुध वधू होई हीनता खोय।
नारी नर अरधंग की सांचेहि स्वामिनि होय।।
इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) उ.प्र. से वर्ष 1939 से प्रकाशित होने वाली भारतीय महिलाओं के लिए सचित्र मासिक पत्रिका ‘दीदी’ में लेखिकाओं को प्रमुखता से स्थान दिया जाता था यद्यपि उन दिनों बहुत कम लेखिकाएं थीं। जिन लेखिकाओं की रचनाएं ‘दीदी’ में निरंतर प्रकाशित होती थीं उनमें प्रमुख नाम थे- डॉ. विद्यावती ‘मालविका’, कंचनलता सब्बरवाल आदि। इसके बाद प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं में भी लेखिकाओं को पर्याप्त स्थान दिया जाता रहा है। क्योंकि एक लेखिका स्त्री जीवन को जितनी गहराई से साहित्य में अभिव्यक्त कर सकती है उतनी गहराई से एक लेखक नहीं कर सकता है। सद्यः प्रकाशित ‘अन्वेषिका’ इस अर्थ में और अधिक महत्वपूर्ण है कि इसमें लेखिकाओं के द्वारा लेखिकाओं की रचनाओं को प्रकाशित किया गया है।
‘अन्वेषिका’ का यह ताज़ा अंक ‘बेटी विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित किया गया है। बेटी विषय पर केन्द्रित कुल 43 रचनाएं पत्रिका में हैं। इनमें सभी विधाओं को संजोया गया है। पत्रिका में हिन्दी साहित्य जगत की सुपरिचित कथालेखिका डॉ. शरद सिंह की कहानी ‘पराई बेटी’ के साथ ही निरंजना जैन की कहानी ‘सम्मान की खातिर’ तथा मधु गुप्ता की कहानी ’मेरा अक्स मेरी बेटी’ ने समाज में बेटियों के जीवन को बड़े रोचक एवं मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया है।
‘बेटियां’ शीर्षकों के अंतर्गत दो पृथक-पृथक लेखों में आलोचक डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय तथा संध्या दरे ने बेटियों की क्षमता और योग्यता को तार्किक ढंग से सामने रखा है। पत्रिका में बेटियों के जीवन पर केन्द्रित तीन ग़ज़लें हैं, जिनमें ‘बेटी’ शीर्षक से एक गजल डॉ. वर्षा सिंह (अर्थात् मेरी) की, इसी शीर्षक से दूसरी गजल डॉ. राजश्री रावत की तथा तीसरी गजल ज्योति विश्वकर्मा की है जिसका शीर्षक है- ‘दो कुलों का दीपक जलाती हैं ये’। ‘एक पाती बेटी के नाम’ शीर्षक से एक रोचक पत्र लेखिका राजश्री मयंक दवे ने लिखा है जिसमें एक मां की अपनी बेटी के प्रति गर्व भरी भावना का उद्घाटन है।
पत्रिका में डॉ. प्रेमलता नीलम का गीत ‘बेटी की पीड़ा’ के अतिरिक्त शेष रचनाएं कविता के रूप में हैं - ‘राजदुलारी मेरी बेटी’ मघु दरे, ‘बेटियां फूल सी’ पुष्पा चिले, ‘मां मुझको जग में आने दो’ डॉ. वंदना गुप्ता, ‘मेरी प्यारी बेटी’ नंदनी चौधरी, ‘स्मृतियां’ डॉ. छाया चौकसे, ‘बिटिया’ डॉ. चंचला दवे, ‘बेटियां स्वाभिमान बेटियां सम्मान’ डॉ. सरोज गुप्ता, ‘बेटी तू मन को लुभाने लगी’ ज्योति झुड़ेले, ‘बेटी’ जयंती सिंह लोधी, ‘पत्र जो लिखा नहीं’ डॉ. कविता शुक्ला, ‘हिन्द की बेटी हूं’ सुनीला सराफ, ‘बेटियां’ क्लीं राय, ‘बेटियां’ पारुल दरे, ‘बेटी’ सरिता जैन, ‘बधाई हो बेटी हुई’ विनीता केशरवानी, ‘मेरी बेटी’ शशी दीक्षित, ‘बेटी’ डॉ. ऊषा मिश्रा, ‘नहीं पराई बेटियां’ डॉ. नम्रता फुसकेले, ‘बेटी’ निशा शाह, ‘मैं बेटी हूं हिन्द की’ पुष्पलता पाण्डेय, ‘बेटियां’ शोभा सराफ, ‘बेटी’ अनीता पाली, ‘भारत की बेटी’ डॉ. अनूपी सर्मया, ‘बेटी खास अहसास’ स्मिता गोड़बोले, ‘झट से रूठ जाना’ अंशिका गुलाटी, ‘मां-बाप की बगिया में’ कंचन केशरवानी, ‘बेटी’ निधि यादव, ‘बेटी’ भारती सोनी, ‘बेटी’ ज्योति दीक्षित, ‘त्याग की मूरत है बेटी’ पूनम साहू, ‘बेटियां’ सुनीता जड़िया, ‘हमारी बेटियां’ ऊषा बर्मन, ‘खूबसूरत सा ख्वाब होती हैं बेटियां’ किरण सराफ।
‘अन्वेषिका’ के इस अंक में हिन्दी लेखिका संघ, सागर की वर्ष भर संचालित हुई गतिविधियों की तस्वीरें तथा संघ की उपलब्धियों एवं कार्यों का विवरण भी प्रकाशित किया गया है। महिला रचनाकारों की रचनाओं की विषयगत विशेषता ने इस अंक को पठनीय एवं संग्रहणीय बना दिया है। सकारात्मक पक्ष यह भी है कि कि यह अंक ई पत्रिका के रूप में होने के कारण सहज उपलब्ध है। आज जब साहित्य समाज साहित्य की पठनीयता को ले कर तथा हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं की घटता संख्या के विषय में चिंतित है, ऐसे समय में ‘अन्वेषिका’ का प्रकाशन महत्वपूर्ण एवं प्रशंसनीय है।
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