Dr. Varsha Singh |
बुन्देलखण्ड की काव्यधारा
- डॉ. वर्षा सिंह
बुन्देलखण्ड उस समय से साहित्यिक सम्पदा का धनी रहा है जब यह भू-भाग जैजाकभुक्ति कहलाता था। बुन्देलखण्ड में एक से बढ़ कर एक कवि एवं साहित्यकार हुए। जिनकी रचनाओं से यहां की जातीय गरिमा, संस्कृति, धार्मिकता, राजनीति, आर्थिक स्थिति एवं वीर भावना की समुचित जानकारी मिलती है। बुन्देलखण्ड के शिल्पकार वीर योद्धा महाराज छत्रसाल स्वयं कवि एवं साहित्यप्रेमी थे। इनके लिए कवि भूषण कह उठे थे -‘‘ शिवा को सराहौं कि सराहौं छत्रसाल को ’’। जब मोहम्मद बंगश ने बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया और 80 वर्षीय महाराज छत्रसाल को बाजीराव पेशवा की सहायता की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने इस कविता के रूप में अपना संदेश भेजा था-
जो गति ग्राह्य गजेन्द्र की, सो गति जानहुं आज।
बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज ।।
"पत्रिका" समाचार पत्र (राजस्थान पत्रिका) के सागर संस्करण के चार वर्ष पूर्ण होने पर दिनांक 27.08.2019 को प्रकाशित डॉ. वर्षा सिंह के आलेख का संक्षेप अंश |
बुन्देलखण्ड में जो सुप्रसिद्ध कवि हुए उनमें से कुछ प्रमुख कवि हैं -
*कवि जगनिक* :- चंदेलकाल में सन् 1165 से 1203 में राजा परमाल के दरबार में रहते हुए कवि जगनिक ने आल्हखण्ड नामक वीर रस की सुप्रसिद्ध रचना लिखी, जिसमें महोबा के वीर नायक आल्हा और ऊदल की वीरता का इतना सजीव वर्णन किया गया है कि इसे पढ़ने या सुनने वाले की भुजाएं फड़कने लगती हैं। समूचे बुन्देलखण्ड में इस रचना को आल्हा गायन के रूप में गाया जाता है।
*कवि केशवदास* :- केशवदास रीति-काव्य के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। केशव का जन्म ओरछा में हुआ था। बुन्देलखण्ड की संस्कृति रीति रिवाज भाषागत प्रयोगों से केशव बुन्देली के ही प्रमुख कवि हैं। इन्हें हिंदी तथा संस्कृत का बहुत अच्छा ज्ञान था। ये संगीत, धर्मशास्त्र, ज्योतिष एवं राजनीति के भी ज्ञाता थे। अपने जीवनकाल में इनको बहुत प्रसिध्दि मिली थी। इनके प्रमुख ग्रंथ हैं- ’रसिक प्रिया, ’कवि प्रिया, ’विज्ञान-गीता तथा ’राम चंद्रिका आदि। रीतिकालीन कवि केशव ने कविप्रिया, रसिकप्रिया में रीति तत्व तथा विज्ञान गीता एवं रामचन्द्रिका में भक्ति तत्व को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप में प्रस्तुत किया है। आचार्य कवि केशवदास ने बुन्देली गारी (लोकगीत) को प्रमुखता से अपने काव्य में स्थान दिया और सवैया में इसी गारी गीत को परिष्कृत रुप में रखा है। रामचन्द्रिका के सारे सम्वाद सवैयों में है ऐसी सम्वाद योजना दुर्लभ है। उनकी कविता में अनुप्रास अलंकार की सुन्दर प्रस्तुति मिलती है-
अरुन गात अतिप्रात पद्मिनी-प्राननाथ मय।
मानहु “केसवदास’ कोकनद कोक प्रेममय।
*कवि लाल कवि* :- लाल कवि मऊ, बुंदेलखंड के निवासी थे तथा महाराज छत्रसाल के दरबारी कवि थे। उन्होंने ’छत्रप्रकाश’ की रचना की, जिसे वीर रस के प्रमुख काव्य ग्रंथों में गिना जाता है। इस हस्तलिखित कृति को अंग्रेज मेजर प्राइस ने फोर्ट विलियम कॉलेज कलकत्ता से इसे पहली बार मुद्रित कराया था। इसमें छत्रसाल का जीवनवृतांत है। उनकी यह कविता देखें :-
’लाल’ लखौ पावस प्रताप जगती तल पैं,
शीतल समीर बीर बैरी बहने लगे।
दाबे, दबे, दबकीले, दमक, दिखाए, दीह,
दिशि, देश, बादर, निसासी रहने लगे ।।
*कवि ईसुरी* :- बुन्देलखण्ड के यशस्वी कवि ईसुरी का जन्म उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड अंतर्गत झांसी जिले के मऊरानीपुर के गांव मेंढ़की में हुआ था। ईसुरी की फागें कालजयी हैं। उनकी फागों में प्रेम, श्रृंगार, करुणा, सहानुभूति, हृदय की कसक एवं मार्मिक अनुभूतियों का सजीव चित्रण है। ईसुरी की फागों में दिल को छूने और गुदगुदाने की अद्भुत क्षमता है। उन्होंने अपनी फागें अपनी प्रेयसी रजऊ को संबोधित करके लिखी हैं जिसमें श्रृंगार रस की अद्भुत छटा देखने को मिलती है।
जो तुम छैल छला बन जाते, परे अँगुरियन राते।
मों पोंछत गालन के ऊपर, कजरा देत दिखाते।
घरी घरी घूघट खोलत में, नजर सामने आते।
ईसुर दूर दरस के लाने, ऐसे काए ललाते ।
*कवि पद्माकर* :- महाकवि पद्माकर का जन्म सागर में सन् 1753 में हुआ था। उन्होंने अपने जन्म और जीवन के बारे में जयपुर नरेश महाराज जगत सिंह को इस कवित्त के रूप में अपना परिचय दिया था।
भट्ट तिलंगाने को, बुंदेलखंड -वासी कवि, सुजस-प्रकासी ‘पद्माकर’ सुनामा हों।
जोरत कबित्त छंद-छप्पय अनेक भांति, संस्कृत-प्राकृत पढ़ी जु गुनग्रामा हों ।
पद्माकर की भाषा सरस, काव्यमय, सुव्यवस्थित और प्रवाहपूर्ण है। अनुप्रास के प्रयोग में वे सिद्धहस्त थे। काव्य-गुणों का पूरा निर्वाह उनके छंदों में हुआ है। शौर्य, श्रृंगार, प्रेम, भक्ति का सुन्दर चित्रण उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है-
फागु की भीर, अभीरिन में
गहि गोंवदै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर,
ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीनि पितंबर कम्मर तें
सु बिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसुकाय,
‘लला फिर आइयो खेलन होरी।
बुंदेलखंड में कवि बोधा, कवि ठाकुर, मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी अजमेरी से ले कर ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी, केदारनाथ अग्रवाल, घनश्यामदास बादल आदि अनेक कवि हुए, प्रवीण राय, गणेश कुंवरि जैसी कवयित्रियां हुईं और यह परम्परा आज भी सतत् प्रवाहमान है।
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