Dr. Varsha Singh |
सागर : साहित्य एवं चिंतन
ऊंचाइयां छूने को तत्पर युवा शायर मुकेश सोनी रहबर
- डॉ. वर्षा सिंह
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परिचय :
नाम : मुकेश सोनी रहबर
जन्म : 07 जून 1980
जन्म स्थान : ग्राम बरखेड़ी ( जबलपुर )
शिक्षाः बी.ए.
विधा : शायरी
पुस्तकें : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
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जबलपुर जिले के ग्राम बरखेड़ी में 07 जून 1980 को जन्मे युवा कवि मुकेश सोनी रहबर 10 वर्ष की उम्र में अपने पिता श्री पूरन लाल सोनी तथा माता श्रीमती पार्वती सोनी के साथ सागर में आकर बस गए। उनकी आरंभिक शिक्षा ग्राम बरखेडी में हुई, जबकि आगे की पढ़ाई सागर में रहकर पूरी की। कवि रहबर डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर से स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद निजी व्यवसाय में संलग्न हो गए। इस दौरान उन्हें लेखन कार्य तथा साहित्य से लगाव हो गया। विशेष रूप से गजल विधा ने उनका ध्यान आकृष्ट किया। वे गोष्ठियों में ग़ज़लें पढ़ने लगे और शीघ्र ही कवि सम्मेलनों में भी उनकी सहभागिता होने लगी। उनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं तथा आकाशवाणी से भी वे अपनी रचनाओं का पाठ कर चुके हैं।
अपनी ग़ज़लों से सागर नगर के साहित्य समाज में अपनी पहचान बनाने वाले मुकेश सोनी रहबर को महिमा प्रकाशन, दुर्ग (छग) द्वारा उनके सृजन कार्य पर “मन की आवाज साहित्य सम्मान 2012“ से सम्मानित किया जा चुका है। इसी प्रकार हिंदी साहित्य में योगदान के लिए जीपी प्रकाशन जालंधर (पंजाब) द्वारा “काव्य कलश कालिदास सम्मान“ उन्हें प्रदान किया था। कवि रहबर मानते हैं कि ग़ज़ल वह विधा है जो दिल को गहराई से छू जाती है और इसीलिए यह विधा उन्हें विशेष रूप से पसंद है। रहबर की ग़ज़लों में एक सादगी है जो पाठकों ओर श्रोताओं के मन-मस्तिष्क पर अपना अलग ही प्रभाव डालती है। उनकी ग़ज़लों में आमजन जीवन की समस्याओं के साथ ही भावनात्मक रागात्मकता खुलकर मुखर होती है। उदाहरण के लिए यह ग़ज़ल देखें -
दिल दहल जाता है मेरा पढ़कर अब ये सुर्खियां।
गिर रही हैं क्यों हवस की हर तरफ ये बिजलियां।
मोमबत्ती ही जलाकर शोक ही करते हो तुम
मत करो बरबाद अपनी माचिसों की तीलियां।
गर जलाना है तो अब जिंदा जला दो तुम उन्हें
जिनके कारण हो रही बदनाम अपनी बेटियां।
अपने ही गुलशन में अब महफूज रह पाती नहीं
सहमी सहमी सी, डरी सी उड़ रही हैं तितलियां।
सो रहा है चैन से अब भी प्रशासन देखिए
लग रहा है हाथ में पहने हुए हो चूड़ियां।
एक युवा मन का आक्रोश रहबर की गजलों में दिखाई देता है। यह आक्रोश जब निहायत व्यक्तिगत हो जाता है तो वे आत्मविवेचना की मुद्रा में दिखाई देते हैं और तब जो ग़ज़ल उनकी कलम से निकलती है वह इस प्रकार की होती है -
शोलों से भी हंस के निकल जाता हूं मैं
मां की दुआ है गिर के संभल जाता हूं मैं
कैसे भी हालात हो जाए डरता नहीं
दरिया हूं हर रूप में ढल जाता हूं मैं
देने लगी है मज़ा मुझे यह तकलीफें
रंज़ोग़म को हंसकर निगल जाता हूं मैं
दिल को आती है जब याद बुजुर्गों की
तन्हा कहीं फिर दूर निकल जाता हूं मैं
Sagar Sahitya awam Chintan - Dr. Varsha Singh |
अपने आपसपास के वातावरण का विवेचन करते हुए मुकेश सोनी रहबर बड़ी ही सरल ढंग से अपने गहराई पूर्ण विचारों को अपनी ग़ज़लों में पिरो देते हैं जैसे -
कितनी रातों को गंवाया हमने
तब हुनर आज ये पाया हमने
नफरतों की इन आंधियों में भी
दीप उल्फत का जलाया हमने
ये खबर भी है कि वो दुश्मन है
फिर भी सीने से लगाया हमने
हर तरफ अपने ही अपने हैं मगर
खुद को तन्हा यहां पाया हमने
बन के दीवार वहीं बैठे हैं
रास्ता जिनको दिखाया हमने
रहबर की कई ग़ज़लें समय और व्यक्ति के द्वंद्व को उकेरती हुई स्वयं से संवाद और संघर्ष करती दिखाई देती हैं। इन ग़ज़लों में आशा, निराशा, चुनौतियां, संवेदनाएं, जैसी तमाम भावनाएं अभिव्यक्ति के मर्म में उतरने का आग्रह करती है -
हमने कभी किसी को भी धोखा नहीं दिया।
उठ जाए हम पे उंगली यह मौका नहीं दिया।
मेहनत के पसीने से कमाई है रोटियां
ज़िल्लत का हमने मुंह में निवाला नहीं दिया।
वह तो अदब वफ़ा की हक़दार थी मगर
क्यों हमने ज़िंदगी कोई तोहफा नहीं दिया।
इस बात का अफसोस है मुझको तो आज भी
गिरते हुए लोगों को सहारा नहीं दिया।
अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी के आम मसाइल पर ख़ूबसूरत अशआर पिरोता यह युवा शायर एक ही ग़ज़ल में संवेदनाओं के अनेक रंग पिरो देता है। आसानी से जेहन तक पहुंचती भाषा, सादगी भरी कहन और वज़नदार अशआर की त्रिवेणी इनकी ग़ज़ल-गोई की ख़ासियत है। लिहाज़ा, एक और ग़ज़ल देखें -
कब आओगे हम आज भी घर को सजाएं हैं
आंखों में अपनी यादों का सागर छुपाए हैं
मेरा गरीबखाना भी मंदिर से कम नहीं
इसमें तो बुजुर्गों की दुआओं के साए हैं
जब भी मिले वो हमसे हंस हंस के ही मिले
हमको थी क्या खबर की वह खंजर भी लाए हैं
तुरबत पे मेरी आज भी आते हैं वो आशिक
जो इश्क़ का अभी दिया दिल में जलाए हैं
हम मुफ़लिसों की बस्तियों को मत उजाड़िये
जिन महलों में रहते हो वह हम ने बनाए हैं
बायें से ...मुकेश सोनी रहबर, आदर्श दुबे एवं डॉ. वर्षा सिंह |
प्रेम के विभिन्न पक्षों, संबंधों, विसंगतियों, व्यक्त और अव्यक्त उद्वेगों की अभिव्यक्तियों का सुंदर चित्रण रहबर की ग़जत्रलों में है। उनकी ग़ज़लें एक तरफ प्रेम का संदेश देती हैं, व्यष्टि से समष्टि की ओर जाते हुए प्रेम की व्याख्या करती हैं। उस विशेषता यह कि युवा कवि रहबर ने जिस खूबसूरती से ग़ज़लें कही हैं उतनी ही कलात्मकता से मुक्तक भी लिखे हैं -
मोहब्बत तुम भी करते हो मोहब्बत हम भी करते हैं
खुशी में हो या हो गम में, ये आंखें नम भी करते हैं
चलो एक बार फिर से क्यों ना अपने दिल मिला ले हम
वहां से तुम करो कोशिश यहां से हम भी करते हैं
इसी तारतम्य में एक और मुक्तक देखें -
मैं वासी हिंद का हूं बस यही पहचान लिख देना
वतन के नाम ए मालिक मेरी यह जान लिख देना
मेरे दिल में सिवा इसके कोई ख्व़ाहिश नहीं बाकी
कफ़न में तुम मेरे इक दिन ये हिंदुस्तान लिख देना
यूं तो सागर नगर में अनेक युवा साहित्य सृजन से जुड़े हुए हैं लेकिन मुकेश सोनी रहबर में सृजन के प्रति जो प्रतिबद्धता दिखाई देती है, उससे प्रतीत होता कि कि यह युवा कवि सृजन की ऊंचाइयों को छूने के लिए तत्पर है। यदि उनकी यह प्रतिबद्धता इसी प्रकार बनी रही तो वे एक न एक दिन ग़ज़ल विधा को अवश्य समृद्ध करेंगे।
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( दैनिक, आचरण दि. 22.02.2019)
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