Saturday, December 19, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 14 | हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव | पुस्तक | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरे कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " में पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत चौदहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर की प्रतिष्ठित वरिष्ठ लेखिका, कवयित्री एवं कथाकार डॉ. विद्यावती "मालविका" की पुस्तक "हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव" का पुनर्पाठ।
यहां यह उल्लेखनीय है कि डॉ. विद्यावती "मालविका" मेरी माता जी हैं।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
     
सागर : साहित्य एवं चिंतन

     पुनर्पाठ : हिन्दी संत साहित्य पर बौद्धधर्म का प्रभाव

                                -डॉ. वर्षा सिंह
                                       
      इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को जो आज भी शोधार्थियों एवं पाठकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय है। इस पुस्तक का नाम है - ‘‘हिन्दी संत साहित्य पर बौद्धधर्म का प्रभाव’’, जिसकी लेखिका हैं डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय प्रकाशन, वाराणसी, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह मूलतः शोध ग्रंथ है, जिस पर लेखिका विद्यावती ‘मालविका’ को आगरा विश्वविद्यालय द्वारा पी.एचडी. की उपाधि प्रदान की गई थी। 

डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ सागर नगर की एक ऐसी साहित्यकार हैं जिनका साहित्य-सृजन अनेक विधाओं में है। जैसे- कहानी, एकांकी, नाटक एवं विविध विषयों पर शोध प्रबंध से ले कर कविता और गीत तक विस्तृत है। लेखन के साथ ही चित्रकारी के द्वारा भी उन्होंने अपनी मनोभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। सन् 1928 की 13 मार्च को उज्जैन में जन्मीं डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ ने अपने जीवन के लगभग 6 दशक बुन्देलखण्ड में व्यतीत किए हैं, जिसमें 32 वर्ष से अधिक समय से वे मकरोनिया, सागर में निवासरत हैं। डॉ. ‘मालविका’ को अपने पिता संत ठाकुर श्यामचरण सिंह एवं माता श्रीमती सुमित्रा देवी ‘अमोला’ से साहित्यिक संस्कार मिले। पिता संत श्यामचरण सिंह एक उत्कृष्ट साहित्यकार एवं गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। डॉ. ‘मालविका’ ने 12-13 वर्ष की आयु से ही साहित्य सृजन आरम्भ कर दिया था। स्वाध्याय से हिन्दी में एम.ए. करने के उपरांत आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने ‘‘हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव’’ विषय में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 

इस कालजयी पुस्तक की मूल्यवत्ता के संदर्भ में शांतिस्वरूप बौद्ध का यह कथन उद्धृत किया जा सकता है कि ‘‘जब सन् 1966 में यह मौलिक ग्रंथ प्रकाशित हुआ तो पुस्तक की शोधपरक और संदर्भ- सम्मत सामग्राी और प्रमाणिक उद्धरणों के कारण इस पुस्तक ने हिन्दी बौद्ध जगत को अपनी ओर न केवल आकृष्ट किया अपितु उन्हें विदुषी लेखिका के बौद्धिक सामथ्र्य के समक्ष नतमस्तक होना पड़ा।’’ 

संस्कृत एवं जैन धर्म के विद्वान डाॅ. भागचंद जैन ‘‘भागेन्दु’’ ने इस पुस्तक के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि - ‘‘संत साहित्य और बौद्ध धर्म के पारस्परिक संबंधों को सूक्षमता से समझने के लिए इस पुस्तक को पढ़ना आवश्यक है।’’


हिन्दी साहित्य में संत साहित्य का बहुत महत्व है। इसके अंतर्गत कबीर, रैदास, दादू, नामदेव जैसे संत कवियों का साहित्य आता है। संत साहित्य की यह विशेषता रही कि उसमें भक्ति से कहीं अधिक जन कल्याण की भावना रही। कबीर और रैदास जैसे संतों ने पाखण्डमुक्त जीवन और सामाजिक न्याय के पक्ष में आवाज उठाई। बौद्ध धर्म भी पाखण्ड को त्याग कर अस्पृश्यता से दूर सामाजिक न्याय की बात करता है। अतः ‘‘हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव’’ पुस्तक में संतों के विचारों और बौद्ध धर्म के चिन्तन - दर्शन के पारस्परिक संबंधों को समूचे विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। मूलतः यह पुस्तक एक शोधग्रंथ है जिसमें शोधार्थी लेखिका विद्यावती ‘मालविका’ की अपने शोध के प्रति स्पष्टता और तार्किकता अपने आप में अद्भुत है। इस प्रकार की दृढ़ता और स्पष्टता वर्तमान शोधार्थियों में विरले ही दिखाई देती है। डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ को अपने शोध कार्य में जिन परेशानियों का सामना करना पड़ा और जिस प्रकार उनके कार्य को विश्व के प्रख्यात विद्वानों का मार्गदर्शन मिला वह भी अपने आपमें रोचक है।        

   इस पुस्तक भूमिका की भूमिका में डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ ने लिखा है कि -‘‘प्रस्तुत प्रबंध का उद्देश्य मध्ययुगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म के प्रभाव का अध्ययन करना है। इस प्रकार के अध्ययन की आवश्यकता रही है। मुझे इस प्रकार के अध्ययन करने की सर्वप्रथम प्रेरणा ठाकुर रणमत सिंह डिग्री काॅलेज, रीवा के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष महावीर प्रसाद अग्रवाल जी से प्राप्त हुई थी। उन्हीं के परामर्श के अनुसार मैंने रूपरेखा बना कर जैन डिग्री काॅलेज, बड़ौत के हिन्दी तथा संस्कृत विभाग के अध्यक्ष एवं प्रसिद्ध विद्वान डाॅ. भरत सिंह उपाध्याय के पास भेजा। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मेरा निर्देशक बनना स्वीकार कर लिया और रूपरेखा के संबंध में महतवपूर्ण सुझावों के साथ अध्ययन की दिशा का भी निर्देश किया, किन्तु कुछ ही दिनों के पश्चात् उनकी नियुक्ति दिल्ली के हिंदू काॅलेज में हो गई। इसी बीच आगरा विश्वविद्यालय से सूचना मिली कि मुझे किसी अन्य निर्देशक की देख-रेख में अपना कार्य करना होगा। मेरे सामने यह विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई। मेरा विषय ऐसा था कि जिसका निर्देशक कोई बौद्ध विद्वान ही हो सकता था। पहले तो मैं विषय की गंभीरता देखते हुए हतोत्साहित हो गई, किन्तु अपने परमपूज्य पिता ठाकुर श्रद्धेय श्यामचरण सिंह जी के आदेशानुसार इस संबंध में अपनी कठिनाइयों को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बौद्ध धर्म के प्रकाण्ड विद्वान पूज्य भिक्षु धर्मरक्षित जी के सामने रखा। उन्होंने मुझ पर दया कर के निर्देशक बनना स्वीकार कर लिया और आगरा विश्वविद्यालय से उनके निर्देशन में शोधकार्य करने की स्वीकृति भी मिल गई। जिसके लिए युवराजदत्त डिग्री काॅलेज, ओयल के पूर्व प्रिंसिपल ठाकुर जयदेव सिंह जी की महती अनुकंपा सहायक हुई।’

डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ को शोधकार्य में मूलगंध कुटी विहार पुस्तकालय, सारनाथ तथा महाबोधी सभा, सारनाथ के मंत्री भदंत संघरत्न नायक स्थविरजी के साथ ही राहुल सांस्कृत्यायन ने भी हरसंभव सहयोग किया था। डाॅ. ‘मालविका’ ने अपनी इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि ‘‘प्रणामी धर्म के ग्रंथों का अध्ययन करने में अखिल भारतीय प्रणामी धर्म सेवा समाज, पद्मावतीपुरी, पन्ना के मंत्री महोदय से बड़ी सहायता प्राप्त हुई। उन्होंने अपने संप्रदाय के मुद्रित-अमुद्रित सभी ग्रंथों को मुझे पढ़ने की अनुमति दी, जबकि उन्हें केवल प्रणामी लोगों के लिए ही पढ़ने की अनुमति है।’’

"हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव" - लेखिका डॉ. विद्यावती "मालविका", पुस्तक के प्रथम संस्करण का मुखावरण पृष्ठ

यूं भी किसी भी धर्म विशेष के बारे में समुचित जानकारी के बिना उससे संबंधित विषयों पर लिखा नहीं जा सकता है और लिखा भी नहीं जाना चाहिए। डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ की इस पुस्तक को पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने जिन संतों के विचारों के बारे में लिखा, पहले उनके बारे में तथा उनसे संबंधित धर्मों के बारे में विस्तार से अध्ययन किया। इस पुस्तक को पढ़ कर समूची उत्तर भरतीय संत परम्परा को भली -भांति समझा जा सकता है। पुस्तक का सम्पूर्ण कलेवर छः भागों में विभक्त है। पहले अध्याय में ‘‘बौद्ध धर्म का भारत में विकास’’ में पांचवीं शताब्दी ई.पू. से तेरहवीं श्ताब्दी ई.पू. तक बौद्ध धर्म के विकास का विवरण दिया गया है। इस अध्याय के प्रथम खण्ड में ‘‘स्थविरवाद बौद्ध धर्म’’ के अंतर्गत प्राग्बौद्धकालीन भारतीय समाज, धर्म अैर दर्शन का परिचय देते हुए बुद्ध का आविर्भाव, बुद्ध की जीवनी, बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांत, संघ का महत्व, भिक्षु-भिक्षुणी संघ, जनता पर उनका प्रभाव, स्त्रियों का बौद्ध धर्म में स्थान के बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है। इसी खण्ड में बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक दिग्दर्शन के रूप में स्थविरवाद को सामने रखा गया है। प्रथम अध्याय के दूसरे खण्ड ‘‘महायान का उदय और विकास’’ में प्रथम संगीति, बुद्ध वचनों का संकलन, त्रिपिटक पालि का आकार, द्वितीय संगीति, अशोक के समय में तृतीय संगीति, महायान और हीनयान का पारस्परिक तथा सैद्धांतिक संबंध आदि के साथ ही विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार की जानकारी दी गई है।

पुस्तक के दूसरे अध्याय ‘‘संत मत के स्रोत और बौद्ध धर्म’’ में महायान का विकास, बौद्ध धर्म में तांत्रिक प्रवृत्तियों का प्रवेश, वज्रयान का अभ्युदय, सहजयान, सिद्धों का युग, सिद्धों का जनमानस पर प्रभाव, नाथ सम्प्रदाय का जन्म, बौद्ध धर्म की भित्ति पर सिद्ध और नाथ सम्प्रदाय से संत मत के उदय की जानकारी दी गई है। तीसरे अध्याय ‘‘पूर्वकालीन संत तथा उन पर बौद्ध धर्म  का प्रभाव’’ में जो बिन्दु शोध करके रखे गए हैं, वे हैं - पूर्वकालीन संतों का परिचय जिनमें हैं संत जयदेव, संत सधना, संत लालदेद, संत वेणी, संत नामदेव, संत त्रिलोचन आदि। इसके साथ ही बौद्ध धर्म से उनका संबंध तथा बौद्ध धर्म के तत्वों का विवेचन किया गया है। 

इस पुस्तक का चौथा अध्याय भी दो खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड है- ‘‘प्रमुख संत कबीर तथा बौद्ध धर्म का समन्वय’’। इस खण्ड में कबीर के जीवन वृतांत, उनके मत तथा कबीर के समय में बौद्ध धर्म की भारत में स्थिति की चर्चा की गई है। साथ ही कबीर की वाणियों पर बौद्ध विचार पर प्रकाश डालते हुए जिन बिन्दुओं की व्याख्या की गई है, वे हैं- बौद्ध धर्म का शून्यवाद ही कबीर के निर्गुवाद का आधार, विचार स्वातंत्र्य तथा समता में कबीर पर बौद्ध धर्म की छाप, कबीर की उलटवासियां सिद्धों की देन, सत्तनाम पालि भाषा के सच्च नाम का रूपांतर, कबीर की गुरु भक्ति सिद्धों और नाथों की परम्परा, कबीर की सहजसमाधि सिद्धों के सहजयान से उद्भूत, कबीर का हठयोग बौद्धयोग से प्राप्त, अवधूत बौद्ध धर्म के धूतांगधारी योगियों की प्रवृत्ति, सुरति शब्द स्मृति और निरति शब्द विरति के ही रूप, कबीर की शैली सिद्धों की शैली का अनुकरण, बौद्ध धर्म के विभिन्न तत्वों का कबीर साहित्य में अनुशीलन। इन बिन्दुओं में दिए गए सभी तथ्य उदाहरण दे कर प्रमाणिकता से सिद्ध किए गए हैं। चौथे अध्याय के दूसरे खण्ड में ‘‘कबीर के समसामयिक संत और उन पर बौद्ध धर्म का प्रभाव’’ शीर्षक के अंतर्गत कबीर के समकालीन संत सेन नाई, स्वामी रामानंद, राधवानंद, संत पीपा, संत रैदास, संत धन्ना, मीराबाई, झालीरानी तथा संत कमाल के साहित्य में बौद्ध विचारों के समन्वय को उदाहरण दे कर स्पष्ट किया गया है।

पांचवें अध्याय ‘‘सिख गुरुओं पर बौद्ध प्रभाव’’ में सिख धर्म के आदि गुरु नानकदेव का जीवन वृत्तंात, उनकी साधना तथा उनके बौद्ध देशों के भ्रमण का विवरण दिया गया है। डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ के अनुसार -‘‘गुरु नानक की वाणियों का अध्ययन करने से उन पर महायान बौद्ध धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। शून्य, शून्यसमाधि, अनाहत, दशमद्वार, शून्यमण्डल, सहजगुफा, निर्वाण, निरंजन, सत्यनाम, सहजावस्था, सुरति, कर्म-स्वकता, तीर्थव्रत आदि कर्मकाण्डों का निषेध, गुरु महात्म्य, ईश्वर की घट-घट व्यापकता, निर्वाणपद, ग्रंथप्रमाण का बहिष्कार, जातिवाद का त्याग.... इत्यादि बौद्ध धर्म के तत्व नानकवाणी में आए हुए हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो संतों से हो कर नानक तक पहुंचे थे और कुछ बौद्ध विद्वानों के सत्संग, सिद्धों, नाथों एवं वज्राचार्यों की धर्मचर्चा तथा बौद्ध देशों के भ्रमण से प्राप्त हुए थे। ’’ पांचवें अध्याय में ही सिख धर्म के अन्य गुरुओं तथा उनके विचारों का विवरण है। साथ ही श्री गुरुग्रंथ साहिब में बौद्ध मान्यताओं की जानकारी दी गई है।

पुस्तक के छठे एवं अंतिम अध्याय ‘‘संतों की परम्परा में बुद्ध वाणी और बौद्ध साधना का समन्वय’’  में दो खण्ड हैं। पहले खण्ड में संतों के सम्प्रदायों की जानकारी दी गई है जैसे - साध सम्प्रदाय, लालदार्स आर उनका सम्प्रदाय, दादूदयाल तथा उनकी शिष्य परम्परा, निरंजनी सम्प्रदाय, बावरी साहिबा और उनका पंथ, मलूकदास तथा उनका धर्म, बाबालाली सम्प्रदाय, प्रणामी सम्प्रदाय, सत्तनामी सम्प्रदाय, धरनीश्वरी सम्प्रदाय, दरियादासी सम्प्रदाय, शिवनारायणी सम्प्रदाय, चरणदासी सम्प्रदाय, गरीबदासी सम्प्रदाय, पानप सम्प्रदाय तथा रामसनेही सम्प्रदाय। इस खण्ड में जिन संतों का परिचय दिया गया है, उनमें प्रमुख हैं- रज्जबजी, सुन्दरदास, गरीबदास, हरिदास, प्रागदास, बीरूसाहब, यारीसाहब, केशवदास, बूलासाहब, गुलालसाहब, भीखासाहब, हरलालसाहब, गोविन्दसाहब, पल्टूसाहब, जगजीवनसाहब, घासीदास, बिहारी दरियादास, मारवाड़ी दरियादास आदि। दूसरे खण्ड में कुछ अन्य संतों और उनके विचारों का परिचय दिया गया है, जैसे - संत जम्भनाथ, संत शेख फरीद, संत सिंगाजी, संत भीखन, संत दीन दरवेश, संत बुल्लेशाह तथा संत बाबा किनाराम।

मेरे लिए यह अत्यंत सौभाग्य की बात है कि ‘‘हिन्दी संत साहित्य पर बौद्धधर्म का प्रभाव’’ पुस्तक की लेखिका डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ मेरी और मेरी बहन डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह की माता जी हैं और मेरे साथ ही शांतिविहार काॅलोनी, मकरोनिया, सागर में निवासरत हैं। उनके इस ग्रंथ को अनेक बार मैंने पढ़ा है और संत साहित्य को समझने का प्रयास किया है। हिन्दी साहित्य में संत परम्परा और बौद्ध धर्म के विचारों को जानने के लिए यह पुस्तक बारम्बार पढ़ने योग्य है। देश-विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा अध्ययन केन्द्रों, शोधार्थियों, हिन्दी साहित्य एवं बौद्ध धर्म के अध्येताओं के बीच यह पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप में आज भी रुचिपूर्वक पढ़ी जाती है।     

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पुनर्पाठ : हिन्दी संत सहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव - डॉ. वर्षा सिंह


( दैनिक, आचरण  दि.19.12.2020)
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4 comments:

  1. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद विभा जी 🙏

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  2. Replies
    1. बहुत शुक्रिया महोदय / महोदया 🙏

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