बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध छांदासिक कवि
- डॉ. वर्षा सिंह
बुन्देलखण्ड उस समय से साहित्यिक सम्पदा का धनी रहा है जब यह भू-भाग जैजाकभुक्ति कहलाता था। बुन्देलखण्ड में एक से बढ़ कर एक कवि एवं साहित्यकार हुए। जिनकी रचनाओं से यहां की जातीय गरिमा, संस्कृति, धार्मिकता, राजनीति, आर्थिक स्थिति एवं वीर भावना की समुचित जानकारी मिलती है।
बुन्देलखण्ड के शिल्पकार वीर योद्धा महाराज छत्रसाल स्वयं कवि एवं साहित्यप्रेमी थे। इनके लिए कवि भूषण कह उठे थे -‘‘ शिवा को सराहौं कि सराहौं छत्रसाल को ’’। जब मोहम्मद बंगश ने बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया और 80 वर्षीय महाराज छत्रसाल को बाजीराव पेशवा की सहायता की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने इस कविता के रूप में अपना संदेश भेजा था-
जो गति ग्राह्य गजेन्द्र की, सो गति जानहुं आज।
बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज ।।
बुन्देलखण्ड में जो सुप्रसिद्ध छांदासिक कवि हुए उनमें से कुछ प्रमुख कवि हैं -
कवि जगनिक :-
चंदेलकाल में सन् 1165 से 1203 में राजा परमाल के दरबार में रहते हुए कवि जगनिक ने आल्हखण्ड नामक वीर रस की सुप्रसिद्ध रचना लिखी, जिसमें महोबा के वीर नायक आल्हा और ऊदल की वीरता का इतना सजीव वर्णन किया गया है कि इसे पढ़ने या सुनने वाले की भुजाएं फड़कने लगती हैं। समूचे बुन्देलखण्ड में इस रचना को आल्हा गायन के रूप में गाया जाता है।
बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार,
बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार।
जगनिक के रचे आल्हा संबंधी वीरगीतों में चंदेलों की वीरता के वर्णन है। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इन गीतों का संग्रह करके छपवाया था। आल्हखंड में तमाम लड़ाइयों का जिक्र है। शुरूआत मांड़ौ की लड़ाई से है। माड़ौ के राजा करिंगा ने आल्हा-उदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। उदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया तब उनकी आयु मात्र 12 वर्ष थी।
आल्हखण्ड का एक छंद देखें -
मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला,उदल कहैं पुकारि-पुकारि,
भागि न जैयो कोऊ मोहरा ते यारों रखियो धर्म हमार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।
कवि केशवदास :-
केशवदास रीति-काव्य के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। केशव का जन्म ओरछा में हुआ था। बुन्देलखण्ड की संस्कृति रीति रिवाज भाषागत प्रयोगों से केशव बुन्देली के ही प्रमुख कवि हैं। इन्हें हिंदी तथा संस्कृत का बहुत अच्छा ज्ञान था। ये संगीत, धर्मशास्त्र, ज्योतिष एवं राजनीति के भी ज्ञाता थे। अपने जीवनकाल में इनको बहुत प्रसिध्दि मिली थी। इनके प्रमुख ग्रंथ हैं- ’रसिक प्रिया, ’कवि प्रिया, ’विज्ञान-गीता तथा ’राम चंद्रिका आदि। रीतिकालीन कवि केशव ने कविप्रिया, रसिकप्रिया में रीति तत्व तथा विज्ञान गीता एवं रामचन्द्रिका में भक्ति तत्व को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप में प्रस्तुत किया है। आचार्य कवि केशवदास ने बुन्देली गारी (लोकगीत) को प्रमुखता से अपने काव्य में स्थान दिया और सवैया में इसी गारी गीत को परिष्कृत रुप में रखा है। रामचन्द्रिका के सारे सम्वाद सवैयों में है ऐसी सम्वाद योजना दुर्लभ है। उनकी कविता में अनुप्रास अलंकार की सुन्दर प्रस्तुति मिलती है-
केसव' सरिता सकल मिलित सागर मन मोहैं।
ललित लता लपटात तरुन तर तरबर सोहैं।
रुचि चपला मिलि मेघ चपल चमकल चहुं ओरन।
मनभावन कहं भेंटि भूमि कूजत मिस मोरन।
इहि रीति रमन रमनी सकल, लागे रमन रमावन।
प्रिय गमन करन की को कहै, गमन सुनिय नहिं सावन।
केशवदास एक मात्र ऐसे कवि हैं ,जिनकी गणना भक्ति काल और रीति काल दोनों में की जाती है। केशव ने अपने काव्य में प्रकृति के सम्पूर्ण उपादानों का उल्लेख किया है। उदाहरण देखें -
अरुन गात अतिप्रात पद्मिनी-प्राननाथ मय।
मानहु "केसवदास' कोकनद कोक प्रेममय।
परिपूरन सिंदूर पूर कैघौं मंगलघट।
किघौं सुक्र को छत्र मढ्यो मानिकमयूख-पट।
कै श्रोनित कलित कपाल यह, किल कापालिक काल को।
यह ललित लाल कैघौं लसत दिग्भामिनि के भाल को।
लाल कवि :-
लाल कवि मऊ, बुंदेलखंड के निवासी थे तथा महाराज छत्रसाल के दरबारी कवि थे। उन्होंने ’छत्रप्रकाश’ की रचना की, जिसे वीर रस के प्रमुख काव्य ग्रंथों में गिना जाता है। इस हस्तलिखित कृति को अंग्रेज मेजर प्राइस ने फोर्ट विलियम कॉलेज कलकत्ता से इसे पहली बार मुद्रित कराया था। इसमें छत्रसाल का जीवनवृतांत है। उनकी यह कविता देखें :-
’लाल’ लखौ पावस प्रताप जगती तल पैं,
शीतल समीर बीर बैरी बहने लगे।
दाबे, दबे, दबकीले, दमक, दिखाए, दीह,
दिशि, देश, बादर, निसासी रहने लगे ।।
'छत्रप्रकाश' में लाल कवि ने बुंदेलों की उत्पत्ति, चंपतराय के वृत्तांत सहित महाराजा छत्रसाल की मुग़लों पर विजयगाथा का वर्णन किया है। काव्य और इतिहास दोनों की दृष्टि से यह ग्रंथ हिन्दी में अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है। लाल कवि का एक और ग्रंथ 'विष्णुविलास' है जिसमें बरवै छंद में नायिकाभेद कहा गया है। पर इस कवि की कीर्ति का स्तंभ 'छत्रप्रकाश' ही है। 'छत्रप्रकाश' से नीचे कुछ पद्य उद्धृत किए जाते हैं -
लखत पुरुष लच्छन सब जाने।
सतकबि कबित सुनत रस पागे।
रुचि सो लखत तुरंग जो नीके।
चौंकि चौंकि सब दिसि उठै सूबा खान खुमान।
अब धौं धावै कौन पर छत्रसाल बलवान ।
छत्रसाल हाड़ा तहँ आयो। भयो हरौल बजाय नगारो।
दौरि देस मुग़लन के मारौ। एक आन शिवराज निबाही। आठ पातसाही झकझोरे।
काटि कटक किरबान बल, बाँटि जंबुकनि देहु।
ठाटि युद्ध यहि रीति सों, बाँटि धारनि धारि लेहु चहुँ ओर सों सूबनि घेरो।
पजरे सहर साहि के बाँके। कबहूँ प्रगटि युद्ध में हाँके।
बानन बरखि गयंदन फोरै। कबहूँ उमड़ि अचानक आवै।
कबहूँ हाँकि हरौलन कूटै। कबहूँ देस दौरि कै लावै।
कवि ईसुरी :-
बुन्देलखण्ड के यशस्वी कवि ईसुरी का जन्म उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड अंतर्गत झांसी जिले के मऊरानीपुर के गांव मेंढ़की में हुआ था। ईसुरी की फागें कालजयी हैं। उनकी फागों में प्रेम, श्रृंगार, करुणा, सहानुभूति, हृदय की कसक एवं मार्मिक अनुभूतियों का सजीव चित्रण है।
तुमखों देखौ भौत दिनन सें,बुरौ लगत रओ मन सें
लुआ न ल्याये पूरा पाले के,कैबे करी सबन सें
एकन सें विनती कर हारी, पालागन एकन सें
मनमें करै उदासी रई हों, भई दूबरी तन सें
ईसुर बलम तुमइये जानौ, मैंने बालापन सें।
ईसुरी की फागों में दिल को छूने और गुदगुदाने की अद्भुत क्षमता है। उन्होंने अपनी फागें अपनी प्रेयसी रजऊ को संबोधित करके लिखी हैं जिसमें श्रृंगार रस की अद्भुत छटा देखने को मिलती है।
जो तुम छैल छला बन जाते, परे अँगुरियन राते।
मों पोंछत गालन के ऊपर, कजरा देत दिखाते।
घरी घरी घूघट खोलत में, नजर सामने आते।
ईसुर दूर दरस के लाने, ऐसे काए ललाते ।
एक और बानगी देखिए -
उनकी होय न हमसों यारी, उनसों होय हमारी
मन आनन्द गईं मन्दिर में, शिव की मूरत ढारी
परसत चरन मनक मुन्दरी में, मुख की दिसा निहारी
गिरजापति वरदान दीजिए, जौ मैं मनें बिचारी
ईसुर सोचें श्री कृष्ण खों, श्री बृखमान दुलारी
कवि पद्माकर :-
महाकवि पद्माकर का जन्म सागर में सन् 1753 में हुआ था। उन्होंने अपने जन्म और जीवन के बारे में जयपुर नरेश महाराज जगत सिंह को इस कवित्त के रूप में अपना परिचय दिया था।
भट्ट तिलंगाने को, बुंदेलखंड -वासी कवि, सुजस-प्रकासी ‘पद्माकर’ सुनामा हों।
जोरत कबित्त छंद-छप्पय अनेक भांति, संस्कृत-प्राकृत पढ़ी जु गुनग्रामा हों ।
पद्माकर की भाषा सरस, काव्यमय, सुव्यवस्थित और प्रवाहपूर्ण है। अनुप्रास के प्रयोग में वे सिद्धहस्त थे। काव्य-गुणों का पूरा निर्वाह उनके छंदों में हुआ है। प्रकृति चित्रण में वे बेजोड़ थे। उदाहरण देखें -
कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है.
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में
पानन में पीक में पलासन पगंत है
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में
देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरयो बसंत है
शौर्य, श्रृंगार, प्रेम, भक्ति का सुन्दर चित्रण भी उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है-
फागु की भीर, अभीरिन में
गहि गोंवदै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर,
ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीनि पितंबर कम्मर तें
सु बिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसुकाय,
‘लला फिर आइयो खेलन होरी।
बुंदेलखंड में कवि बोधा, कवि ठाकुर, मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी अजमेरी, गंगाधर व्यास से ले कर ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी, केदारनाथ अग्रवाल, घनश्यामदास बादल आदि अनेक कवि हुए एवं प्रवीण राय, गणेश कुंवरि जैसी कवयित्रियां हुईं जिनमें से कुछ ने छांदासिकता से परे भी काव्यसृजन किया और प्रसिद्धि पाई।
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बहुत खूब ! बहुत खूब वर्षा जी ! यह लेख सूचनाप्रद ही नहीं, पठनीय और सौंदर्य से ओतप्रोत भी है । मेरा आग्रह है कि आप छांदासिकता को पारिभाषित अथवा स्पष्ट भी करें ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार, आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी 🙏
ReplyDeleteछांदासिक कवि से मेरा तात्पर्य है छंदबद्ध कविता करने वाले कवि... छंदबद्ध कविताओं में गेयता, लयबद्धता, अलंकारिकता और विषयबद्धता का समावेश होता है। इसलिए ऐसी कविताएं और कवि सहज स्मरणीय बन जाते हैं।
संभवतः आप मेरी बात से सहमत होंगे।
सादर,
डॉ.वर्षा सिंह
जी हाँ वर्षा जी । मैं सहमत हूँ । मैं स्वयं छंदबद्ध कविताओं को ही वास्तविक अर्थों में कविता मानता हूँ जिनमें गेयता हो एवं जो गीत के रूप में भी श्रेणीबद्ध की सकें ।
Delete🙏🌺🙏
Deleteसुस्वागतम्
एवं
हार्दिक धन्यवाद
माथुर जी
🙏🌺🙏