Dr. Varsha Singh |
एक शताब्दी बाद भी प्रासंगिक है प्रेमचंद की कृति "सेवासदन"
- डॉ. वर्षा सिंह
"सेवासदन" उपन्यास हिन्दी कथाकारों में कथासम्राट के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार प्रेमचंद द्वारा रचित एक ऐसा उपन्यास है जिसे प्रेमचंद ने सन् 1916 में उर्दू भाषा में लिखा था। वस्तुतः उर्दू में यह "बाज़ारे-हुस्न" नाम से लिखा गया था। बाद में उन्होंने स्वयं सन 1919 में इसका हिन्दी अनुवाद किया। इस मायने में यह प्रेमचंद का पहला हिन्दी उपन्यास है और 2019 का वर्ष "सेवासदन" के लेखन का शताब्दी वर्ष है।
सेवासदन की प्रासंगिकता प्रकाशित होने के 100 साल बाद आज भी बनी हुई है। इसकी कहानी बीसवीं सदी में वाराणसी की पृष्ठभूमि पर केन्द्रित है जहां नायिका सुमन अपने पति के साथ रहती है। सुमन इसकी प्रमुख नारी पात्र है जो भारतीय समाज में महिलाओं की दशा का उदाहरण है। वह एक साहसी, निडर सुंदर महिला है किन्तु प्रेम के अभाव में उसका दाम्पत्य जीवन सुखद नहीं था। दुखी और उदास सुमन पुलिस दारोगा कृष्णचन्द्र की पुत्री है जो सज्जन एवं जनप्रिय अफसर है । अधिकांश पुलिस अधिकारियों की भांति रिश्वत माँगकर आडंबरपूर्ण जीवन बिताना उन्हें पसन्द नहीं था। वे रिश्वत नहीं लेते थे और दूसरों को भी रिश्वत लेने से रोकते थे। उनके वेतन से पत्नी गंगाजली, बड़ी पुत्री सुमन तथा छोटी पुत्री बेटी शांता का जीवन भलीभांति पोषित हो रहा था। सुमन सुंदर, सुशील और सुशिक्षित लड़की है । वह बहुत महत्वाकांक्षी थी । जब सुमन विवाह योग्य हुई तो दहेज की समस्या कृष्णचन्द्र को परेशान करने लगी। उसी के चलते वे एक मुकदमे में फंसे महंत रामदास से तीन हज़ार रुपये रिश्वत मांग बैठे और रंगे हाथों पकड़े गए, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें चार वर्ष की सज़ा सुना दी गई। तब उनकी पत्नी गंगाजली बेटियों सुमन और शांता के साथ वाराणसी में अपने भाई के घर पर निवास करने लगीं। इस पूरे प्रकरण के कारण सुमन का विवाह रुक गया। सुमन के मामा पक्ष ने किसी तरह दहेज दिए बिना सुमन से आयु में बड़े गजाधर पांडे नामक व्यक्ति से सुमन का विवाह संपन्न करा दिया। आयु में ही नहीं स्वभाव में भी पति और पत्नी में बड़ा अंतर था। अनेक सदमे झेलती सुमन की मां का इस दौरान निधन हो गया। गजाधर मितव्ययी प्रवृत्ति का था वह सुमन को बेहतर खाना, कपड़ा जैसी मूलभूत चीज़ों, सुख-सुविधाओं से वंचित रखता। सुमन प्रेम के साथ ही भौतिक सुख के लिए तरसती। आखिर एक दिन दोनों के वैवाहिक जीवन का ताल-मेल टूट गया । गजाधर ने सुमन को घर से निकाल दिया ।
मुसीबत की मारी, पति से उपेक्षित सुमन वकील पद्मसिंह की शरण में गयी, किन्तु वहां भी उसे सहारा नहीं मिला। तब एक भोली नामक वेश्या ने सुमन को शरण दी। आत्मग्लानि से पीड़ित गजाधर पांडे कालांतर में साधु का जीवन व्यतीत करने लगा।
सेवासदन उपन्यास का एक और प्रमुख पात्र सदनसिंह एक सुंदर एवं बलिष्ठ युवक है जो अपने गांव से बनारस में आकर अपने चाचा पद्मसिंह के यहां रहकर पढ़ता था। उसकी दृष्टि सुमन पर पड़ गई। समय गुज़रता गया। समाज सुधारक विट्ठलदास ने सुमन को भोली वेश्या के चंगुल से छुड़ाने का प्रयत्न किया। तर्क-वितर्क के पश्चात सुमन ने वेश्यालय छोड़कर समाज सुधारकों द्वारा संचालित विधवा आश्रम में रहने का निश्चय किया । इसी बीच चार साल की अवधि की सज़ा काट कर सुमन के पिताजी कृष्णचन्द्र जेल से बाहर आ गए। सदनसिंह से शांता का विवाह तय हो गया, किंतु तरह- तरह की अफवाहों के डर से सदन ने विवाह नहीं किया वरन् सदन और सुमन के बीच मेलजोल बना रहा। अपनी बेटियों के असफल जीवन पर दुःखी होकर कृष्णचन्द्र ने घर का त्याग कर दिया। रास्ते में उन्हें एक साधु से मिला जो सुमन का पति गजाधर पांडे था । गजाधर ने अपना नाम गजानन्द रख लिया था । पारिवारिक जीवन की विफलता के कारण वह पहले ही साधु बन चुका था। पहले तो कृष्णचन्द्र ने गजाधर के साथ रहने का निश्चय किया किंतु बाद में रात को चुपके उठकर पास ही प्रवाहमान गंगा नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली ।
उधर गंगा के तट पर रहने वाला सदनसिंह मल्लाहों का नेता बन गया। उसने दो-चार नावें भी खरीद लीं। सदन ने सोच-विचार कर सुमन की छोटी बहन शांता को पत्नी के रूप में स्वीकार कर नदी के तट पर बनी झोंपड़ी में रहना शुरू किया। सुमन भी इस झोंपड़ी में रहती थी। अंतर्द्वन्द्व से घिरी सुमन झोंपड़ी से निकली तब रास्ते में उसे एक साधू मिला, सुमन नहीं जानती थी कि वह साधु और कोई नहीं बल्कि उसका पति गजाधर है। उन दिनों गजाधर ने पद्मसिंह के सहायता से एक आश्रम बनाकर निराश्रित युवतियों को संरक्षण देने का कार्य शुरू कर दिया था । सुमन भी इस सेवासदन नामक आश्रम से जुड़ कर सेवा कार्य में लग गई ।
इस प्रकार “सेवासदन” समाज में नारी के अधोपतन के मूल में छिपे सामाजिक कारणों को उजागर करने वाला उपन्यास है । पत्नी के रूप में प्रताड़ित सुमन और वेश्या के रूप में सुख-सुविधा भोगी किन्तु मानसिक रूप से अशांत सुमन। भारतीय समाज में स्त्री के इन दो रूपों को चित्रित कर प्रेमचंद ने समाज की कुरीतियों को उजागर किया है।
“सेवासदन” की मुख्य कथा गजाधर और सुमन से संबंधित है तो गौण कथा सदन सिंह और शांता से संबंधित कथा है । गजाधर की कथा का अंत साधु जीवन को वरण करने पर है तो सुमन की कथा का अंत सेवाश्रम (सेवासदन) में होता है ।
समाज में व्याप्त कुरीतियां और स्त्री की स्थिति आज भी काफी हद तब सुधरी नहीं है। स्त्री को ग़लत रास्तों पर धकेलने को जिम्मेदार परिस्थितियों में वैसा क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया है जैसा 21वीं सदी में दरकार था। इसीलिये “सेवासदन” भौतिक और आत्मिक दोनों सुखों की प्राप्ति से सुखी जीवन की अवधारणा को बल देने वाला लेखन के 100 वर्ष बाद भी प्रासंगिक उपन्यास है।
यहां सागर नगर में रहती थी कुसुम (परिवर्तित नाम) नामक युवती। सुंदर, बोल्ड युवती.... भृत्य पिता और घरों में कामवाली बाई का कार्य करने वाली अनपढ़ मां की पढ़ी-लिखी पुत्री कुसुम। मैंने देखा है कि किस तरह भौतिक सुख-सुविधा की लालसा में पड़ कर अपनी उम्र से 20 वर्ष बड़े पुरुष की रखैल बन कर उसने अपना जीवन तबाह कर लिया। इतना ही नहीं उस पुरुष द्वारा त्यागे जाने पर वह कॉलगर्ल बन कर समाज की विद्रूपताएं झेलती रही। अंतोगत्वा मानसिक शांति की तलाश में भटकते हुए एक दिन थक-हार कर उसने रेल से कट कर अपनी जान दे दी। उसके छोटे भाई- बहन भी नारकीय जीवन जीने को विवश थे। वर्तमान में वह परिवार कहीं सुदूर शहर जा कर किस तरह रह रहा है, पता नहीं। "सेवासदन" की 20वीं सदी की सुमन और मेरे शहर की वर्तमान समय की .... 21वीं सदी की कुसुम... अनेक समानताएं हैं दोनों की जीवनगाथा में।
हां, इसलिए मैं दावे से यह बात कह सकती हूं कि "सेवासदन" आज भी प्रासंगिक है।
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