प्रिय ब्लॉग पाठकों,
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत छठवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के कवि डॉ. मनीष झा के काव्य संग्रह "गीतगीता" का पुनर्पाठ।
सागर : साहित्य एवं चिंतन
पुनर्पाठ : ‘गीतगीता’ काव्य संग्रह
-डॉ. वर्षा सिंह
इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है सागर के कवि डॉ. मनीष चंद्र झा की पुस्तक ‘गीतगीता’ को। श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है ही ऐसी कृति जिसने जीवन के बदलते मूल्यों में भी अपनी उपादेयता बनाए रखी है। इस कृति का दुनिया की अनेक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। गद्य अनुवाद भी और पद्यानुवाद भी। अनुवादकार्य एक कठिन और चुनौती भरा कार्य है। अनुवादक के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है कि वह मूल पुस्तक के मर्म को भली-भांति समझे और फिर उसे उस भाषालालित्य के साथ प्रस्तुत अनूदित करे कि मूल पुस्तक का मर्म जस का तस रहे। अनुवादक के लिए यह भी जरूरी हो जाता है कि वह चयनित पुस्तक के कलेवर के साथ आत्मसंबंध स्थापित करे ताकि उसे भली-भांति समझ सके। अनुवादक के लिए अनुवाद करते समय आत्मसंयम बनाए रखना भी जरूरी होता है। वह अनुवाद में अपनी ओर से कोई भी कथ्य नहीं मिला सकता है, अन्यथा मूलकृति की अनूदित सामग्री की मौलिकता पर असर पड़ता है। किसी भी पुस्तक का गद्यात्मक अनुवाद तो कठिन होता ही है, उस पर पद्यानुवाद का कार्य तो और अधिक धैर्य, ज्ञान, सतर्कता और समर्पण की मांग करता है। पद्यानुवाद करने वाले के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि अनुवादक को इतना प्रचुर शब्द ज्ञान हो कि वह मूल के मर्म को काव्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए सही शब्द का चयन कर सके। जिससे मूल सामग्री अपने पूरे प्रभाव के साथ पद्यानुवाद में ढल सके। ‘गीतगीता’ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का पद्यानुवाद है। डॉ. मनीष चंद्र झा ने ‘गीता’ के श्लोकों को मुक्तछंद में नहीं बल्कि छंदबद्ध करते हुए दोहे और चैपाइयों में उतारा है। छंद अपने आप में विशेष श्रम मांगते हैं और यह श्रम डॉ. झा ने किया है।
महाभारत के 18 अध्यायों में से 1 भीष्म पर्व का हिस्सा है श्रीमद्भगवद्गीता । इसमें भी कुल 18 अध्याय हैं। 18 अध्यायों की कुल श्लोक संख्या 700 है। महाभारत का युद्ध आरम्भ होने के समय कुरुक्षेत्र में अर्जुन के नन्दिघोष नामक रथ पर सारथी के स्थान पर बैठ कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश किया था। इसी ‘गीता’ को संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया। गीता में श्रीकृष्ण ने 574, अर्जुन ने 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने 1 श्लोक कहा है। कुरुक्षेत्र में जब यह ज्ञान दिया गया तब तिथि एकादशी थी। श्रीमद्भगवद्गीता का पहला श्लोक है-
धृतराष्ट्र उवाच:-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।
इसे डाॅ. मनीष चंद्र झा ने इन शब्दों में अनूदित किया है-
कहि राजा धृतराष्ट्र हे संजय कहो यथार्थ।
धर्म धरा कुरुक्षेत्र में, जिन ठाड़े समरार्थ।।
मेरे सुत औ पांडु के, सैन्य सहित सब वीर।
कौन जतन करि भांति के, देखि बताओ धीर।।
इस पर संजय अपनी दिव्यदृष्टि से कुरुक्षेत्र का विवरण देना आरम्भ करते हैं-
संजय कहि देखि भरि नैना, व्यूह खड़े पांडव की सेना।
द्रोण निकट दुर्योंधन जाई, राजा कहे वचन ऐहि नाई।।
ऐसा सरल पद्यानुवाद किसी भी पाठक के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर के ही रहेगा। वस्तुतः कुरुक्षेत्र में जब कौरवों और पांडवों की सेना पहुंच गई तब महाराज धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, संजय मुझे अपनी दिव्य दृष्टि से ये बताओ कि कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है? संजय को भगवान कृष्ण ने दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। यह दिव्य दृष्टि संजय को इसलिए दी थी कि वह धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र में हुई घटनाओ का पूरा वर्णन बता सके।
‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का महत्व आज भी प्रसंगिक है। आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति कोई भी काम करने से पहले उसका अच्छा परिणाम पाने की कामना करने लगता है और इस चक्कर में वह अपना संयम गवां बैठता है। किन्तु जब अच्छा परिणाम नहीं मिलता है तब वह हताश हो कर गलत कदम उठाने लगता है। अतः आज के वातावरण में ‘गीता’ का यह सुप्रसिद्ध श्लोक मार्गदर्शक का काम करता है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
इस श्लोक का सुंदर पद्यानुवाद डॉ. मनीष चंद्र झा ने इन शब्दों में किया है-
कहि प्रभु फल तजि कामना, कर्म करे निष्काम।
संयासी योगी वही, नहिं अक्रिय विश्राम।।
इसी तरह वर्तमान जीवन में दिखावा इतना अधिक बढ़ गया है कि मन की शांति ही चली गई है। यह भी मिल जाए, वह भी मिल जाए की लालसा व्यक्ति को निरन्तर भटकाती रहती है। आज युवा पीढ़ी कर्मशील मनुष्य नहीं बल्कि ‘पैकेज’ में कैद दास बनती जा रही है। दुख की बात यह है कि उन्हें इस दासत्व के मार्ग में माता-पिता और अभिभावक ही धकेलते हैं। जबकि ऐसा करके वे अपने बुढ़ापे का सहारा भी खो बैठते हैं। इस संबंध में ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में कहा गया है -
विहाय कामान्यः कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।
निर्ममो निरहंकार स शांति मधि गच्छति।।
अर्थात् मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी। डॉ. मनीष चंद्र झा के शब्दों में इसी भाव को देखिए -
विषयन इन्द्रिन के संयोगा, जे आरम्भ सुधा सम भोगा।
अंत परंतु गरल सम जेकी, वह सुख राजस कहहि विवेकी।।
आज ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के महत्व को सभी स्वीकार रहे हैं। जीवन को सही दिशा देने वाली ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का सरल भाषा में पद्यानुवाद कर डॉ. मनीष चंद्र झा ने अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने ‘गीता’ को सामान्य बोलचाल की भाषा में अनूदित कर सामान्य जन के लिए ‘गीता’ के मर्म को गेयता के साथ आसानी से समझने योग्य बना दिया है। इसीलिए ‘गीतगीता’ महत्वपूर्ण पुस्तक है और बार-बार पढ़े जाने योग्य है।
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( दैनिक, आचरण दि.10.08.2020)
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गीतगीता की बेहतरीन समीक्षा के लिए आपको और पुस्तक प्रकाशन के लिए लेखक डॉ. मनीष झा को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद स्वराज्य करण जी 🙏
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