Dr. Varsha Singh |
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की कवयित्री ज्योति झुड़ेले पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....
सागर : साहित्य एवं चिंतन
कोमल कविताओं की सर्जक कवयित्री ज्योति झुड़ेले
- डॉ. वर्षा सिंह
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परिचय :- ज्योति झुड़ेले
जन्म :- 02 नवम्बर 1961
जन्म स्थान :- गाडरवारा, मध्यप्रदेश
पिता एवं माताः- श्री कालूरामजी कठल एवं श्रीमती सियादेवी कठल
लेखन विधा :- कविताएं
प्रकाशन :- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
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सागर नगर का परिवेश हर परिस्थिति में रचनाकार को सृजनकर्म से जोड़े रखता है। चाहे कोई व्यवसायी हो, नौकरीपेशा हो या कि गृहणी हो, साहित्य से उसका लगाव कभी छूटता नहीं है वरन् बढ़ता ही जाता है। यह सत्य ज्योति झुड़ेले पर भी चरितार्थ होत है। कवयित्री ज्योति झुड़ेले का जन्म 02 नवम्बर 1961 में गाडरवारा के कठल परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री कालूरामजी कठल एवं माता श्रीमती सियादेवी कठल ने बड़े लाड़-प्यार से अपनी पुत्री का लालन-पालन किया। ज्योति अपने दो भाइयों और एक बहन में सबसे छोटी होने के कारण सभी की लाड़ली रहीं। उनकी शिक्षा गाडरवारा में हुई। समाजसेवा और धर्मप्रेम की भावना उन्हें बाल्यावस्था से ही संस्कारों के रूप में मिली। सागर निवासी श्री ओंकार प्रसाद झुड़ेले के साथ विवाह होने के बाद सागर उनका स्थाई निवास हो गया। चार ननद और दो देवर वाले भरे-पूरे परिवार की बहू बनने के बाद वे अपने पारिवारिक दायित्वों में निमग्न होती चली गईं किन्तु उनके भीतर बसा काव्य प्रेम कभी लोरी बन कर सामने आता रहा तो कभी कोई मधुर गीत बन कर प्रकट होता रहा।
ज्योति झुड़ेले अपने परिवार बताती हुई कहती हैं कि -‘‘मेरे पति मेरे बहुत अच्छे हमसफ़र हैं। मेरे बहुत अच्छे मार्गदर्शक हैं।हर क़दम पर साथ देते हैं। मेरे जीवन साथी अच्छे पिता, अच्छे भाई, अच्छे बेटे हैं। मेरे भी तीन बेटे हैं। आज मैं अपने संयुक्त परिवार के गिलेशिक़वे भुला कर जीवन के उतार-चढ़ाव में अपने जीवन साथी के साथ खुशियां बटोरने में समर्थ हो सकी हूं। ’’
स्वाभाविक है कि संयुक्त परिवार में छोटे-बड़े गिलेशिक़वे होते ही हैं लेकिन एक कुशल गृहणी इन सबसे ऊपर उठ कर अपने परिवार को जोड़े रखने में विश्वास रखती है। यही भारतीय संस्कृति की पहचान भी है। भारतीय संस्कृति परिवार के विखंडन में कभी विश्वास नहीं रखता है। वर्तमान परिवेश में ‘‘न्यूक्लियर फैमिली’ का चलन भले ही बढ़ता जा रहा हो लेकिन भारतीय ‘‘न्यूक्लियर फैमिली’’ भी अपनी पारिवारिक जड़ों से जुड़े रहने का प्रयास करती रहती हैं। कवयित्री ज्योति झुड़ेले ने अपने परिवार को बहुत अच्छे से संजोया है। अपने काव्य कर्म के बारे में बताती हैं कि -‘‘मेरी काव्य यात्रा चौथी-पांचवीं क्लास से आरम्भ हो कर आज तक चल रही है। स्कूल में जब जयंती या त्योहारों पर कविता या भाषण होते थे तब मैं स्वयं की कविता का पाठ करती थी।’’
Sagar Sahitya avam chintan |
ज्योति झुड़ेले की कविताओं में स्त्रीत्व की कोमलता बखूबी परिलक्षित होती है जो उनकी काव्य भावना को मधुरता प्रदान करती है। उनकी कविताओं कहीं-कहीं छायावाद की झलक भी देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए उनकी कविता ‘‘रात बनी जब पनिहारिन’’ की यह पंक्तियां देखिए -
रूप गगरिया-सा छलकाए
प्रिय से मिलने को आतुर
आंखों का कजरा शरमाए
ओठों की लाली देखो
कही-अनकही सब कह जाए
मस्त बयार, उड़ी पुरवाई
कलियां लेती हें अंगड़ाई
तारों की डोरी बनवा कर
चंदा की झालर सेज सजाई।
प्रकृति में प्रेम के तत्व ढूंढ कर उन्हें उपमा की तरह प्रयोग में लाना छायावादी कवियों की विशेषता रही है। यही विशेषता ज्योति झुड़ेले की एक अन्य कविता में भी देखी जा सकती है जिसका शीर्षक है-‘‘सांय-सांय जब हवा चले’’। कविता इस प्रकार हे-
प्रेम गीत वह गाती है
बड़े वेग से नदी बहे जब
वह समुद्र से मिल जाती है
कितने भी उसमें धेले फेंको
लहरें कम्पन कर जाती हैं
सांय-सांय जब हवा चले
तब प्रेम गीत वह गाती है
एक विवाहित भारतीय स्त्री की नितांत व्यक्तिगत भावनाओं को वे अपने अनुभवों के सांचे में ढालती हुई बड़ी ही भावनात्मक अभिव्यक्ति देती हैं। अपनी कविता ‘‘तुम मेरी बिंदिया की शान’’ कविता के बारे में ज्योति झुड़ेले बताती हैं कि यह कविता उनहोंने अपने जीवनसाथी के जन्मदिन पर लिखी थी। जब प्रेम के प्रति समर्पण की भावनाएं कविता बन कर मुखर होती हैं तो एक नया ही बिम्ब रचती हैं-
तुम मेरी चूड़ी के रक्षक
तुम मेरी बिंदिया की शान.....
घूंघट ओट में चंचल नैना
दीपशिखा सम इतराएं
जन्म-जन्म का साथ हमारा
कभी अकेले सांझ न आए
तुम मेरी चूड़ी के रक्षक
तुम मेरी बिंदिया की शान....
साथ तुम्हारा पा कर प्रियतम
उड़ान भरी है पंख फैला कर
घर-आंगन में फूल खिले
खुशबू प्रेमिल मन महकाए
तुम मेरी चूड़ी के रक्षक
तुम मेरी बिंदिया की शान....
Jyoti Jhudeley |
जब परस्पर सघन प्रेम हो और समय वियोग का आ जाए अर्थात् प्रियतम को छोड़ कर परदेस जाना पड़े तो एक प्रियतमा के मन में जो पीड़ा उपजती है उसे बड़े ही सुंदर ढंग से ज्योति झुड़ेले ने कविता के रूप में व्यक्त किया है-
हम पड़े परदेस में
और साजन हैं उस पार
ऐसे में हो कहां प्रेमरस
कैसे हो श्रृंगार ......
फूलों की वह लाली देखे
भौंरे हैं मोहताज़
ऐसे में हो कहां मिलन प्रिय
कैसे हो अभिसार......
धरती की हरियाली महके
प्रिय क्षितिज के पार
ऐसे में हो कहां समर्पण
कैसे निकलें मन के उद्गार....
आंखें लागें सूनी-सूनी
काजल है बेताब
ऐसे में प्रिय आ जाए तो
हो जाए श्रृंगार.......
बेटी का बड़ा हो जाना मां को ढेरों खुशियां प्रदान करता है। एक मां अपनी बेटी की चेष्टाओं और उसके कार्यों में किस तरह उसकी आयु का गणित हल होता देखती है इसे ज्योति झुड़ेले की इस कविता में अनुभव किया जा सकता है-
बेटी तू मन को लुभाने लगी
जब से आंगन में रंगोली सजाने लगी
मां का आंचल कहे, तू बड़ी हो गई
बेटी तू मन को लुभाने लगी ......
जब से देहरी पे दीपक सजाने लगी
दादी खुश हो गईं,
उनकी गोदी में सिर टिकाने लगी
बेटी तू मन को लुभाने लगी .......
कवयित्री ज्योति झुड़ेले अपनी कविताओं में कलापक्ष की अपेक्षा भावाभिव्यक्ति को अधिक महत्व देती हैं। इसीलिए उनकी कविता में कोमल भावनाओं की प्रबलता है जो आज के कठोर हो चले समय में साहित्य से दूर होती जा रही है और एक सपाट खुरदरापन उसकी जगह लेता जा रहा है। ऐसे शुष्क हो चले समय में ज्योति झुड़ेले की कोमल भावनाओं युक्त कविताएं अपना अलग ही महत्व रखती हैं।
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- डॉ. वर्षा सिंह
( दैनिक, आचरण दि. 04.04.2019)
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