Friday, November 9, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन 33 - स्त्रीपक्ष के मुखर कवि डॉ. सतीश चंद्र पाण्डेय - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के युवा साहित्यकार सतीशचंद्र पाण्डेय पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

स्त्रीपक्ष के मुखर कवि डॉ. सतीश चंद्र पाण्डेय
                - डॉ. वर्षा सिंह
           
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परिचय : डॉ. सतीश चंद्र पाण्डेय
जन्म : 17 मार्च 1966
जन्म स्थान : मैनपुरी (उ.प्र.)
शिक्षाः अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर एवं बी.एड.
विधा : मुक्तक, नवगीत, ग़ज़ल एवं व्यंग
पुस्तकें : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
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           यूं तो कवि सतीश चंद्र पाण्डेय का जन्म 17 मार्च 1966 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में हुआ था तथा उन्होंने उच्चशिक्षा भी आगरा विश्वविद्यालय से प्राप्त की किन्तु शिक्षा के बाद उनका अब तक का अधिकांश जीवन सागर में ही व्यतीत हुआ है। सागर के शासकीय गर्ल्स हाई स्कूल, मकरोनिया में प्राचार्य के पद कर कार्य करते हुए डॉ.पाण्डेय सतत् साहित्य सेवा में लगे हुए हैं। उनका कहना है कि विद्यालयीन दायित्वों से जब भी समय मिलता है, वे लेखन कार्य में जुट जाते हैं। अपनी मातृभाषा हिन्दी के प्रति प्रेम उन्हें अपने पिता स्व. कृष्णचंद्र पाण्डेय से मिला जबकि अंग्रेजी साहित्य के प्रति रुझान ने उन्हें अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा दी। उनके पिता शासकीय अधिकारी थे जो कर्मठता और ईमानदारी से अपना कर्त्तव्य निर्वाह करने में विश्वास रखते थे। अपने पिता के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर डॉ.पाण्डेय ने शिक्षा जगत को अपनी आजीविका के माध्यम के रूप में चुना। वे व्यक्ति के उत्थान के लिए शिक्षा को अनिवार्य तत्व मानते हैं। सागर के स्थाई निवासी और एक प्राचार्य के रूप में वे अपने विद्यालय और विद्यालय में पढ़ने वाली छात्राओं के बहुमुखी विकास के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहते हैं। उनकी कविताओं में बेटियों के प्रति चिन्ता को स्पष्ट रूप् से देखा जा सकता है। 
            डॉ.पाण्डेय मुक्तक, नवगीत के साथ ही छंदबद्ध कविताएं भी लिखते हैं। काव्य के अतिरिक्त व्यंग लेखन भी उन्हें पसंद है। उनकी रचनाएं देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी रचनाओं का आकाशवाणी से भी प्रसारण हुआ है।            डॉ.पाण्डेय की छंदबद्ध रचनाओं में जहां छायावादी प्रभाव देखने को मिलता है वहीं छंदमुक्त रचनाएं प्रगतिवाद का आह्वान करती प्रतीत होती हैं। वे स्त्री को सशक्त होते देखना चाहते हैं। डॉ.पाण्डेय का कहना है कि वे स्वयं एक बेटी के पिता हैं और इसीलिए वे बेटियों की पीड़ा, बेटियों के उन्नति की मार्ग की बाधाएं और परेशानियों को समझने का प्रयास करते रहते हैं। वे चाहते हैं कि प्रत्येक बेटी को समाज में सिर उठा कर जीने का अधिकार हो और प्रत्येक स्त्री सम्मान की दृष्टि से देखी जाए।
‘विडंबना’ शीर्षक कविता में सतीश चंद्र पाण्डेय ने बेटियों की समस्याओं और समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण बखूबी सामने रखा है। इस लंबी कविता का एक अंश देखिए-
हां यह वही है
जिसे छूना चाहते हैं सब
अपनाना चाहते हैं सब
और लगाना चाहते हैं सब
और भी बहुत कुछ चाहते हैं सब
मगर फिर भी वह नहीं चाहते एक बेटी
हां, यह वही है
खड़ी हुई विद्यालय के पास
या किसी नुक्कड़ पर
घूरना चाहते हैं सब
और वह खड़ी मूक
नजरें झुकाए, किताबों को वक्ष से
और ताकत से चिपकाए
हट जाना चाहती है वहां से
असुरक्षित कल्पना से भयाक्रांत
थू करना चाहती है
मानो चारों तरफ सड़ांध हो।

अपने घर में ही स्त्री को मिलने वाली उपेक्षा के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए डॉ.पाण्डेय ने अपनी इस ग़ज़ल में तुलसी के पौधे के बिम्ब को चुनते हुए बड़े सुंदर ढंग से अपनी बात कही है-
घर में तुलसी है, हम इसे जल क्यों नहीं देते।
लोग  अच्छी  सोच  को  बल क्यों नहीं देते।
रोकती क्यों नहीं अब अमराईयां हमको
अब हमको आवाज पीपल क्यों नहीं देते
आग ही बरसा रहे हैं एक मुद्दत से
बारिशों को जन्म बादल क्यों नहीं देते
रोकने वाला है जब कोई नहीं तो हम
उनकी महफिल छोड़कर चल क्यों नहीं देते
रोज बढ़ती जा रही है जब समस्याएं
आप इनके सार्थक हल क्यों नहीं देते

स्त्री के प्रति सम्मान की भावना की नींव उसी समय पड़ जाती है जब हम अपनी मां के प्रति सम्मान भाव से झुकते हैं। जो व्यक्ति अपनी जन्मदात्री का सम्मान नहीं कर सकता है वह स्त्री के किसी भी रूप को सम्मान नहीं दे सकता है। इसीलिए कवि डॉ. पाण्डेय अपनी ‘मां’ पर लिखी गई कविता में आह्वान करते हैं कि -
झुको, नीचे झुको
जमीन तक झुको
और उसके पैर छू लो
वह मां है
बहुत संभव है ऐसा करने में
तुम्हारे पैंट की क्रीज़ खराब हो जाये
पर उसके चेहरे की झुर्रियां
और बिवाई फटे पैरों का
तुम्हारे पैंट की क्रीज़ से
बहुत गहरा संबंध है
बंधु, झुको !
नीचे झुको, ज़मीन तक झुको
और उसके पैर छू लो
वह मां है।

डॉ. पाण्डेय के कविमन को इस बात से पीड़ा का अनुभव होता है कि समाज में स्त्री को वह सम्मान नहीं मिल पाता है जो उसे मिलना चाहिए। वे अपनी एक रचना में स्त्री की तुलना पतंग से करते हुए लिखते हैं कि -
पतंग और नारी की पीड़ा एक सी है
क्योंकि वे एक दूसरे की र्प्याय
दोनों की जबरन छेदी गई है नाक
कान में बांधी गई डोरी
दिखाती है समाज का वीभत्स चेहरा
उसे उड़ाने, फंसाने, कहीं भी लटकाने
और अटकाने के लिए हर कोई स्वतंत्र है
फिर चाहे खजूर में लटकाए या कहीं और
तथाकथित ढील और स्वतंत्र होने की चाह में
संजो लेती है सुखद अहसास कल के भविष्य का
बढ़ती जाती है आगे
सब कुछ भूलकर
समुद्र की गहराई के साथ।
बायें से :- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, सतीशचंद्र पाण्डेय एवं अन्य

ऐसा नहीं है कवि स्त्री की सामाजिक अवहेलना को देख कर निराशावादी हो गया हो, उसके भीतर मौजूद विश्वास उसे आशा बंधाता है कि एक दिन युवा और स्त्रीशक्ति के बल पर देश इस दुनिया का सच्चा सिरमौर बनेगा। यह रचना देखिए -
लिखे होंगे देश के ही नाम सारे कीर्तिमान
जिस दिन देश की जवानी जाग जाएगी
आन-बान-शान जो दिखाई नहीं दे रही है
प्राण प्रिय भारत की गूंज दूर जाएगी
नैतिक मूल्य राष्ट्र भाव यदि चिरंजीवी हो
धर्म की ध्वजा पूरे विश्व पर आएगी
भारत के वेद और भारत की गीता पढ़
बुद्ध महावीर की कहानी याद आएगी
एक दिन विश्व गुरु भारत बनेगा पक्का
जिस दिन फरेब की राजनीति हार जाएगी
जिस दिन इबादत से बड़ी होगी आबरू
उस दिन नही ‘पांडे’ नारी देवी कहलायेगी

डॉ. सतीश चंद्र पाण्डेय जिस गंभीरता से स्त्री के पक्ष में चिन्तन करते हुए अपनी रचनाओं में उस चिन्तन को काव्यात्मक रूप देते हैं वह निश्चित रूप से प्रत्येक संवेदनशील मन को आलोड़ित करने में सक्षम है। जैसी कि उनकी कविता है ‘कवि एक जुलाहा है’ उसी तरह प्रत्येक साहित्यकार एक जुलाहे की भांति समाज की चादर को सुंदर बुनावट देना चाहता है। इसी क्रम में डॉ. पाण्डेय की काव्यात्मक ऊर्जास्विता उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता के प्रति आश्वस्त करती है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 09.11.2018)
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