डॉ. वर्षा सिंह |
सागर : साहित्य एवं चिंतन
वृन्दावन राय सरल : बुंदेली-हिन्दी में समान-धर्मा कवि
- डॉ. वर्षा सिंह
उम्र भर पीटे गए हैं ढोल की मानिन्द
आज कोई जश्न में तो कल किसी की मौत पर
ये पंक्तियां हैं सागर नगर के चर्चित कवि वृन्दावन राय सरल की। आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करने वाली इन पंक्तियों के रचयिता वृन्दावन राय सरल बुंदेली और हिन्दी में समान रूप से काव्य सृजन कर रहे हैं। वे देश के मंचों पर भी एक चर्चित नाम हैं। सिविल इंजीनियर रह चुके सरल ने आयुर्वेदरत्न और साहित्य रत्न की उपाधि भी अर्जित की है। पिता स्व. बालचन्द्र राय एवं माता स्व. श्रीमती फूलबाई राय के घर 3 जून 1951 को सागर जिले की खुरई तहसील में जन्मे वृन्दावन राय सरल ने अपनी आजीविका की व्यस्तताओं के बीच साहित्य साधना का मार्ग चुना। लगभग 33 वर्ष से साहित्य सृजन में संलग्न कवि सरल बुंदेली और हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू में भी ग़जलें कहते हैं। उनका एक ग़ज़ल संग्रह ‘धूप ही धूप’ सन् 2001 में प्रकाशित हुआ। बुंदेली काव्य संग्रह ‘को का कैरओ’ तथा बाल कविताओं का संग्रह ‘मैं भी कभी बच्चा था’ भी प्रकाशित हो चुके हैं। उनके दोहों का संग्रह ‘दोहावली’ अभी प्रकाशनाधीन है। कवि सरल की कई रचनाएं विभिन्न सम्वेत संकलनों में भी संकलित की गई हैं। जैसे- ‘अर्द्धशती’, ‘सरस्वती सुमन’, ‘ग़ज़ल दुष्यंत के बाद’, ‘मंदाकिनी’, ‘आदबे सुखन’ आदि। प्रदेश एवं देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। आकाशवाणी के केन्द्रों से रचनाओं के प्रसारण के साथ ही दूरदर्शन, ई टीवी, सहारा टीवी आदि से भी काव्यपाठ कर चुके हैं।
बायें से :- डॉ. वर्षा सिंह, उमाकांत मिश्र एवं वृन्दावन राय सरल |
वृन्दावन राय सरल देश के प्रतिष्ठित मंचों पर काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। उन्हें साहित्य सेवा के लिए डेढ़ दर्जन से अधिक सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है जिनमें प्रमुख हैं-साहित्यश्री (इलाहाबाद), नज़ीर बनारसी सम्मान (बनारस), रवीन्द्रनाथ सम्मान (कोलकता), हिमाक्षरा साहित्य सम्मान (दमन), डॉ रामकुमार वर्मा साहित्य सम्मान (कन्नौज), श्रेष्ठ मंचकवि सम्मान, मध्यप्रदेश लेखक संघ (भोपाल), ‘निर्मल सम्मान’ आर्ष परिषद् (सागर), कवि भूषण सम्मान (दमोह), ‘दादा डालचंद सम्मान’ (सागर) आदि। मध्यप्रदेश लेखक संघ की सागर इकाई के अध्यक्ष वृन्दावन राय सरल कवि सम्मेलनों के सफल संचालक एवं आयोजक भी हैं। कवि सरल की कविताओं में आम जनजीवन की पीड़ा बड़ी बारीकी से मुखर होती है। जब रचना अपनी मातृबोली में लिखी जाए तो उसकी मधुरता एक अलग ही अंदाज़ में सामने आती है क्योंकि उस बोली की विशेषता के साथ ही क्षेत्र के जीवन की विषमताओं का भी बखूबी बयान होता है। ‘को का कैरओ’ बुंदेली काव्य संग्रह में सरल ने अपनी जिन बुंदेली कविताओं को सहेजा है उनमें आंचलिक लालित्यबोध के साथ ही जीवन की कठोरता से सीधा सरोकार दिखाई देता है। कहते हैं न कि अच्छाई धीरे-धीरे आती है लेकिन बुरी आदतें जल्दी जगह बना लेती हैं। संस्कारी बुंदेलखण्ड भी आज तेजी से फैलती जा रही बुरी आदतों से अछूता नहीं रह गया है। इस तथ्य को बड़े ही सुन्दर ढंग से सरल ने अपनी रचनाओं में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-
सुनो कुरैशी, सुनो तिवारी, समय जो कैसा पलटा खा रओ।
रोज कलारी दारू पीबे, बाप के संगे बेटा जा रओ।।
राम लखन को मजलों मोड़ा, देखो कैसो नाक कटा रओ।
मैतारी खों ठूंसा मारै, घरवारी के पांव दबा रओ।।
बायें से : - भगवान दास रैकवार, डॉ. वर्षा सिंह, वृन्दावन राय सरल एवं डॉ. गजाधर सागर |
पानी दैहें, बिजली दैहें, ऐसी तो बे रोजई कै रये।
उनकी कही झूठ पै हम तो, खुशी-खुशी भौंरा से भै रये।।
यही कटाक्ष, यही ललकार उनकी बुंदेली ग़ज़ल में भी देखी जा सकती है-
पांच साल तक कहां गड़े रए, उनसे पूछो।
दुख में हमसे काए कटे रए, उनसे पूछो।
तीन साल से पुलस पूछ रई मुन्नी गायब
सांड से पीछे जोन पड़े रए, उनसे पूछो।
उनकी हमसे काए पूछ रए, हमें पता का
रात दिना जो उतई परे रए, उनसे पूछो।
वृन्दावन राय सरल के बुंदेली काव्य में एक चुटीलापन भी है जो उनकी रचनाओं की रोचकता में वृद्धि करता है। यह खूबी उनकी छोटी बहर की बुंदेली ग़ज़लों में भी देखी जा सकती है जिनमें पर्यावरण के प्रति चिन्ता से ले कर भ्रष्टाचारी वातावरण के चित्रण तक को देखा जा सकता है। उदाहरण देखें-
ढूंढो कहां हिरा गओ पानी।
हमसे आज रिसा गओ पानी।
अत्त देख के ई दुनिया के
जाने कहां ससा गओ पानी।
अपसर, नेता, ठेकेदारों
इनखों खूब बना गओ पानी।
जो काव्याभिव्यक्ति बुंदेली में मुखर हुई है, वही संवेदना वृन्दावन राय सरल की हिन्दी रचनाओं में भी व्यक्त हुई है। विशेषता यह कि वे अपनी कठोर से कठोर बात कहते समय भी सरल से सरल शब्दों का चयन करते हैं। ऐसे शब्द जो आम बोलचाल की भाषा से उठाए गए हैं, जिनमें सहजता है और संप्रेषण की ग्राह्यता है। वृन्दावन राय सरल के हिन्दी दोहों में व्यंजनात्मकता का तीखापन देखते ही बनता है। जैसे ये दोहे देखें -
आंधी से अनुबंध कर, चुप हैं पीपल आम।
पौधों को सहने पड़े, इस छल के परिणाम।।
गेंहूं रुपया बीस का, उस पर सौ की दाल।
मंत्री कहें विदेश में, भारत है खुशहाल।।
Sagar Sahitya Chintan-20 Vrindavan Rai Saral - Bundeli -Hindi Me Samaan Dharma Kavi - Dr Varsha Singh |
छद्म और आडम्बर से भरा वर्तमान वातावरण किसी भी संवेदनशील मन को विचलित कर सकता है। धर्म और आस्था के नाम पर छल करने वाले बाबाओं ने आम जनता को जिस तरह ठग रखा है वह भी कम पीड़ादायक नहीं है। विश्वास के प्रश्न पर भ्रमित कर देने वाले समय में मनुष्य अपने मनुष्यत्व को बचाए रखे, यही बहुत है। इस मुद्दे पर कवि सरल के ये शेर ध्यान देने योग्य हैं-
हम प्यार के रिश्तों को निभा लें तो बहुत है।
दंगों से वतन अपना बचा लें तो बहुत है।
इस दौर के भगवान, फरिश्तों की भीड़ में
हम खुद को आदमी ही बना लें तो बहुत है।
प्रत्येक रचनाकार सदा सुखद वातावरण की आकांक्षा रखता है। उसकी अभिलाषा होती है कि सभी मनुष्य परस्पर मेलजोल से रहें। लोगों के बीच वैमनस्य न रहे तथा जो आम जनता को जाति, धर्म, समुदाय के खानों में बांटने का प्रयास करते हैं वे अपने मंसूबों में कभी सफल नहीं हों। इसीलिए कई बार कवि अलगाववादियों से सीधा संवाद करने से नहीं चूकता है। यही भाव सरल के इस मुक्तक में देखे जा सकते हैं-
दूरियां दिल में बढ़ाने की सियासत छोड़ो।
जख्म तलवार से सिलने की रिवायत छोड़ो।
आग नफरत की न नफरत से बुझा पाओगे
आग से आग बुझाने की ये आदत छोड़ो।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि कवि वृन्दावन राय सरल ने अपनी बुंदेली और हिन्दी दोनों कविताओं से देश के मंचों पर सागर नगर का नाम रौशन करने के साथ ही अपनी सृजनात्मकता की निरन्तरता को भी साधे रखा है।
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( दैनिक, आचरण दि. 11.07.2018)
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