Sunday, August 19, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन 2... कवि महेन्द्र फुसकेले की कविताओं में स्त्रीविमर्श - डाॅ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि महेन्द्र फुसकेले की कविताओं में स्त्री विमर्श । पढ़िए और मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को जानिए ....
सागर : साहित्य एवं चिंतन
कवि महेन्द्र फुसकेले की कविताओं में स्त्रीविमर्श
- डाॅ. वर्षा सिंह
हर दौर में मानवीय सरोकारों में स्त्री की पीड़ा प्रत्येक साहित्यकार संवेदनशीलता एवं सृजन का केन्द्र रही है। सन् 1934 को जन्में, सकल मानवता के प्रति चिंतनशील साहित्यकार एवं उपन्यासकार महेन्द्र फुसकेले ने जब कविताओं का सृजन किया तो उन कविताओं में अपनी संपूर्णता के साथ स्त्री की उपस्थिति स्वाभाविक थी। ‘तेंदू के पत्ता में देवता’, ‘मैं तो ऊंसई अतर में भींजी’, ‘कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइओ’ नामक अपने उपन्यासों में स्त्री पक्ष को जिस गम्भीरता से प्रस्तुत किया है, वही गम्भीरता उनकी कविताओं में भी दृष्टिगत होती है। कविता संग्रह ‘स्त्री तेरे हजार नाम ठहरे’ उनके काव्यात्मक स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण पक्ष उजागर करता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो उपन्यासकार फुसकेले स्त्री की पीड़ा, संघर्ष और महत्ता को भावात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए कविता का मार्ग चुनते हैं। वे अपने काव्य संग्रह की शीर्षक कविता ‘स्त्री तेरे हजार नाम ठहरे’ में एक बदचलन स्त्री की व्यथा कथा संवाद के रूप में कुछ इस प्रकार सामने रखते हैं -
बदचलन ठहराई गई एक स्त्री से/जो पूछा मैंने/
तो उसने बताया/पति की मौत के बाद
सरपंच को अपनी देह/ नहीं सौंपने के अपराध में/नौ कोस तक/
चरित्रहीन विख्यात कर दी गई मैं।
यह कटु सत्य है कि स्त्री पर किसी भी तरह का लांछन लगाना सबसे आसान काम होता है, और दुर्भाग्यवश बिना सच्चाई को परखे पूरा समाज भी उस लांछन को सही मान बैठता है। फिर चाहे अग्नि परीक्षा में खरी उतरी सीता ही क्यों न हो। इस मानसिकता पर प्रहार करते हुए कवि ने इसी कविता में आगे लिखा है -
जा कर कोई क्यों नहीं/उस चरित्र-शिरोमणि
सरपंच से पूछता/
वह अब तक कितनी स्त्रियों की /देह मसल चुका है।
Sagar Sahitya Awm Chintan Mahendra Fuskele Ki Kvitaon Me Stri Vimarsh - Dr Varsha Singh
स्त्री को अपने जीवन में कदम-कदम पर विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। एक कठिनाई जो जीवनपर्यंत उससे जुड़ी रहती है वह है उसकी सुंदरता या असुंदरता। आज का बाज़ार जो गोरेपन की क्रीमों से भरा रहता है, वह भी इसी मानसिकता को बढ़ावा देता रहता है कि औरतों की चमड़ी का रंग गोरा ही होना चाहिए। जब समाज में स्त्री को उसकी योग्यता से नहीं बल्कि चमड़ी के रंग से आंका जाने लगता है तो तमाम प्रकार की वैचारिक विकृतियां पनपने लगती हैं, जिसका शिकार बनना पड़ता है स्त्रियों को। महेन्द्र फुसकेले की एक कविता है ‘दृष्टि सौंदर्य की’। कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
अदालत में एक स्त्री पर/ तलाक़ का मुक़द्दमा चला
स्त्री ने बताया/ पति का आरोप है कि मैं सुंदर नहीं हूं
............ कि वह असुंदर है
उसका रंग साफ़ नहीं, बदसूरत है।
‘‘भार्या: गले का नौलखा हार’’ कविता में कवि ने एक सुघड़ गृहणी के रूप में पत्नी के दायित्वों और उसके समर्पण को रेखांकित करते हुए इस पीड़ा को प्रकट किया है कि एक पत्नी को समाज में वह सम्मान नहीं दिया जाता है जो उसे मिलना चाहिए। अपनी इसी बात को कवि ने इन शब्दों में कहा है कि -
गृहकार्य की चिंता में डूबी पत्नी/समाज में असम्मानित
क्यों नहीं पत्नी दिवस/मनाता परिवार और समाज ?
पत्नी ही संवारती घर-कुटुम्ब को
पत्नी दिवस की तैयारी/हो शुभारंभ।
पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में सम्मानित होते महेन्द्र फुसकेले

भारतीय समाज में एक विडम्बना आज भी व्याप्त है कि अनेक परिवारों में बेटी को जन्म देना मां का अपराध माना जाता है। बेटी को जन्म देते ही मां तानों और उलाहनों के कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। सभी वैज्ञानिक तथ्यों को भुला कर यह मान लिया जाता है कि बेटी के जन्म के लिए सिर्फ मां ही जिम्मेदार होती है और ऐसी मां को जीवन भर परिवार की प्रताड़ना सहनी पड़ती है। ‘कभी तो हंसो मां’ कविता में एक बेटे के शब्दों में अपनी मां की उस पीड़ा को व्यक्त किया गया है जो उसने लगातार दो बेटियां पैदा करने के कारण भुगती थी। महेन्द्र फुसकेले की इन पंक्तियों पर गौर करें -
खेत के अधगिरे खड़ेरा में/मुझे अपने कंधे पर बैठाले हुए/खूब रोई मां छुप कर।
मां का कसूर था/उसने मेरी दो छोटी बहनों को एक के बाद एक जना।
स्त्री के अस्तित्व का विवरण उसके लावण्य के वर्णन के बिना अधूरा है। शायद इसीलिए जीवन के यथार्थ की कठोरता के बीच कवि स्त्री में वसंत को देखता है-
जो वसंत / दिलों की मखमली सेज पर
उबासी ले रहा है/वह जल्दी अंगड़ाई ले लेगा/ स्त्री के गेसुओं से
स्त्री की वेणी से खुलक आवेगा।
महेन्द्र फुसकेले की कविताओं में स्त्री पर विमर्श नारा बन कर नहीं अपितु सहज प्रवाह बन कर बहता है। उनकी कविताओं में स्त्री चिंतन बहुत ही व्यावहारिक और सुंदर ढ़ंग से प्रकट हुआ है।
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( दैनिक, आचरण दि. 14.03.2018)

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